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तत्त्वानुशासन बभूव' यह कुमारसंभव ग्रन्थका वाक्य भी उद्धृत किया है । इससे 'प्रसख्यान' शब्द भी ध्यान और समाधिका वाचक है, यह स्पष्ट हो जाता है।
अग्रका निरुक्त्यर्थ अथवाऽङ्गति जानातीत्यग्रमात्मा निरुक्तितः। तत्त्वेषु चाऽग्न-गण्यत्वादसावग्रमिति स्मतः ॥६२॥ . 'अथवा 'अंगति जानाति इति अन' इस निरुक्तिसे 'अन' आत्माका नाम है,जोकि जानता है और वह आत्मा (जीवादि नव) तत्त्वोंमें अग्रगण्य होनेसे भी 'प्रग्न' रूपसे स्मरण किया गया है।' । व्याख्या-यहाँ दो दृष्टियोंसे 'अग्न' नाम आत्माका बतलाया है-एक निरुक्तिकी दृष्टि , जो ज्ञाता अर्थको व्यक्त करती है, दूसरी तत्त्वोंमें अग्रगण्यताकी दृष्टि, जिससे सात तथा नवतत्त्वोकी गणनामें, जीवात्माको पहला स्थान प्राप्त है। छह द्रव्योमे भी उसकी प्रथम गणना की जाती है।
द्रव्यार्थिक-नयादेक. केवलो वा तथोदितः । ., । अन्त.-करणवृत्तिस्तु चिन्तारोधो नियत्रणा ॥६३॥ _ 'द्रव्याथिक-नयसे 'एक' शब्द केवल ( असहाय ) अथवा तयोदित (शुद्ध) का वाचक है। 'चिन्ता' अन्तकरणकी वृत्तिको कहते हैं और 'रोघ' नाम नियन्त्रणका है' .
व्याख्या- यहाँ निश्चयनयकी दृष्टिसे ''एक' आदि शब्दोंके आशयको व्यक्त किया गया है, जिससे 'एक' शब्द शुद्धात्माका वाचक होकर उसीमे चित्तवृत्तिके 'नियन्त्रणका नाम ध्यान हो जाता है। १. अङ्गतीत्यग्रमात्मेति वा (तत्त्वा० वा० ६-२७-२१.) २ चिन्ता अन्त करणवृत्ति । ( तत्त्वा० वा० ६-२७-४)