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ध्यान-शास्त्र दिया गया है। साथ ही उसे स्वेष्ट-फलका प्रदाता लिखा है, जो मुख्यत. निर्जरा तथा सवरके रूपमे है और गौणत. अन्य लौकिक फलोका भी प्रदाता है।
ध्यानके 'योग' और 'समाधि' ये दो नाम तो सुप्रसिद्ध हैं ही, श्रीजिनसेनाचार्यके महापुराणमे इनके साथ धीरोध, स्वान्तनिग्रह और अन्त सलीनताको भी ध्यानके पर्यायनाम बतलाया है', जो बहुत कुछ स्पष्टार्थको लिए हुए हैं, परन्तु 'प्रसख्यान' नाम किस दृष्टिको लिए हुए है, यह यहाँ विचारणीय है । खोजने पर पता चला कि यह शब्द मुख्यत. योगदर्शनका है-योगदर्शनके चतुर्थपाद-गत सूत्र २६ मे प्रयुक्त हुआ है । 'प्र' और 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'ख्या' धातुसे ल्युट् (अन्) प्रत्यय होकर इस शब्दकी उत्पत्ति हुई है । 'ख्या' धातु गणना, तत्त्वज्ञान और ध्यान जैसे अर्थोमे व्यवहत होती है, जिनमेसे पिछले दो अर्थ यहाँ विवक्षित जान पड़ते हैं । उक्त सूत्रकी टीकाओसे भी यही फलित होता है जिनमे 'विवेक-साक्षात्कार' तथा 'सत्त्वपुरुषान्यताख्याति' को प्रसख्यान बतलाया है। वामन शिवराम आप्टेकी सस्कृतइंगलिश-डिक्शनरीमे इसके लिए Reflection, meditation, deep meditation, abstract contemplation अर्थोका उल्लेख करके उदाहरणके रूपमे 'हरः प्रसख्यानपरों १. योगो ध्यान समाधिश्च धी-रोघ. स्वान्तनिग्रहः ।
अन्त सलीनता चेति तत्पर्याया. स्मृता बुध ।। (आर्ष २१-१२) २. प्रसख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेपर्ममेघ समाधि । ३. 'प्रसख्यान विवेकसाक्षात्कार' (भावागणेशवृत्ति तया नागोजीभट्ट
वृत्ति' पृष्ठ २०७) 'षडविंशतितत्त्वान्यालोचयत सत्वपुरुषान्यताख्यातिय जायते सर्वाधिष्ठातृत्वाद्यवान्तरफला तत्प्रसख्यानम् । (मणिप्रभावृत्ति)
-योगसूत्र पृ० २००