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________________ तत्त्वानुशासन निश्चल अग्निशिखाके समान अवभासमान ज्ञान ही ध्यान कहलाता है, जैसा कि पूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है: 'एतदुक्तं भवति-ज्ञानमेवाऽपरिस्पन्दाग्निशिखावदवभासमानं ध्यानमिति । (सर्वार्थसिद्धि ६-२७) इससे यह फलित होता है कि ज्ञानकी उस अवस्थाविशेपका नाम ध्यान है, जिसमे वह व्यग्र न रहकर एकाग्र हो जाता है । शायद इसीसे 'ध्यानशतक'की निम्न गाथामे स्थिर अध्यवसानको ध्यान बतलाया है और जिसमे चित्त चलता रहता है उसे भावना, अनुप्रेक्षा तथा चिन्ताके रूपमे निर्दिष्ट किया है. जं थिरमझवसारण त झाणं ज चलतयं चित्तं । त होज्ज भावना वा अणुपेहा वा अव चिता ।।२।। एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान कव बनता है और उसके नामान्तर प्रत्याहृत्य यदा चिन्तां नानाऽऽलम्बनवतिनीम् । एकालम्बन एवैनां निरुणद्धि विशुद्धधी ॥६०॥ तदाऽस्य योगिनो योगश्चिन्तकाग्रनिरोधनम् । प्रसंख्यानं समाधि स्याद्ध्यान स्वेष्ट-फल-प्रदम् ॥६१॥ 'जव विशुद्धबुद्धिका धारक योगी नाना पालम्बनोमे वर्तनेवाली चिन्ताको खींचकर उसे एक आलम्बनमे ही स्थिर करता है-अन्यत्र जाने नही देता-तब उस योगीके 'चिन्ताका एकाननिरोधन' नामका योग होता है, जिसे प्रसख्यान, समाधि और ध्यान भी कहते हैं और वह अपने इष्टफलका प्रदान करने वाला होता है।' व्याख्या-यहाँ पूर्ववणित ध्यानके विषयको और स्पष्ट किया गया है और उसीको योग', समाधि तथा प्रसख्यान नाम भी १. युजे समाधिवचनस्य योग समाधिनिमित्यनान्तरम् । -तत्त्वा० वा० ६-१-१२
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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