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________________ ध्यान-शास्त्र व्याख्या-पूर्व पद्यमे दिया हुमा ध्यानका लक्षण जिन शब्दोसे बना है, उनमेसे प्रत्येकके आशयको यहाँ व्यक्त किया गया है, जिससे भ्रमके लिये कोई स्थान न रहे । 'एक' शब्द सख्यापरक' होनेके साथ यहां पर प्रधान अर्थमे विवक्षित है, 'अग्र' शब्द आलम्बन तथा मुख अर्थमे प्रयुक्त है और चिन्ताको जो स्मृति कहा गया है वह तत्त्वार्थसूत्रमे वर्णित 'स्मृतिसमन्वाहार' का वाचक है, जो उसी विषयकी वार-वार स्मृति, चिन्ता अथवा चिन्ताप्रबन्धका नाम है। इस ध्यानमे द्रव्य तथा पर्यायमेसे किसी एकको प्रधानताके साथ विवक्षित किया जाता है और उसीमे चिन्ताको अन्यत्रसे हटाकर रोका जाता है। ___ ध्यान-लक्षणमे 'एकान' ग्रहणकी दृष्टि एकान-ग्रहण चाऽत्र वैयग्र्य-विनिवृत्तये । व्यग्रं हि ज्ञानमेव स्याद् ध्यानमेकाग्रमुच्यते ॥५६।। 'इस ध्यान-लक्षणमे जो 'एकान' का ग्रहण है वह व्यग्रताकी विनिवृत्ति के लिए है । ज्ञान ही वस्तुतः व्यग्र होता है, ध्यान नहीं। ध्यानको तो एकाग्न कहा जाता है।' व्याख्या-यहाँ स्थूलरूपसे ज्ञान और ध्यानके अन्तरको व्यक्त किया गया है। ज्ञान व्यग्न है--विविध अग्रो-मुखो अथवा आलम्बनोको लिए हुए है, जब कि ध्यान व्यग्न नहीं होता, वह एकमुख तथा आलम्बनको लिए हुए एकाग्र ही होता है। वस्तुत देखा जाय तो ज्ञानसे भिन्न ध्यान कोई जुदी वस्तु नही, १. एकशब्द सख्यापदम् । (तत्त्वार्थ वा० ६-२७-२) २. म वै व्यग्र । ३ एकाग्रवचन वयग्य-निवृत्यर्थम् । (तत्त्वा० वा० ६-२७-१२) ४. मु ह्यज्ञानमेव । व्यग्र हि ज्ञान न ध्यानमिति । (तत्त्वा० वा० ६-२७-१२)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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