________________
ध्यान-शास्त्र के कारण इससे भी कम कालकी मर्यादाको लिये हुए होता है । ऐसा श्रुतज्ञान स्वर्ग आर मोक्षकी प्राप्तिरूप फलको फलता है, यह सब उसके उक्त तीन विशेषणोका माहात्म्य है। अन्यथा रागद्वेषसे पूर्ण, अयथार्थ और अतिच चल श्रुतज्ञान वैसे किसी फलको नही फलता।
यहाँ अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त कालके सम्बन्धमे इतना और भी जान लेना चाहिये कि यह एक वस्तुमे छद्मस्थोके चित्तके अवस्थान-कालकी दृष्टिसे है, केवलज्ञानियोकी दृष्टिसे नही। अन्तमुहूर्त के पश्चात् चिन्ता दूसरी वस्तुका अवलम्बन लेकर ध्यानान्तरके रूपमे बदल जाती है । और इस तरह बहुत वस्तुओका सक्रमण होने पर ध्यानको सन्तान चिरकाल तक भी चलती रहती है । इसलिये यदि कोई छद्मस्थ अधिक समय तक ध्यान लगाये बैठा या समाधिमे स्थित है तो उससे यह न समझ लेना चाहिये कि वह एक वस्तुके ध्यानमे अन्तर्मुहूर्त-कालसे अधिक समय तक स्थिर रहा है, किन्तु यह समझना चाहिये कि उसका वह घ्यानकाल अनेक घ्यानोका सन्तानकाल है ।
ध्यानके निरुक्त्यर्थ ध्यायते येन तद्ध्यान यो ध्यायति स एव वा । यत्र वा घ्यायते यद्वा ध्यातिर्वा ध्यानमिष्यते ॥६७॥
१. उत्तमस हननाभिधानमन्यस्येयत्कालाध्यवसायधारणाऽसामर्थ्यात् ।
(तत्त्वा० वा० ६-२७-११) २. अतोमुत्तमेत्त चित्तावत्याणमेगवत्थु म्मि ।
छउमत्याण झारण जोगणिनिरोहो जिणाण तु ॥३॥ अतोमुहत्तपरओ चिंता झारणतर व होज्जा हि । सुचिर पि होज्ज बहुवत्यु-सकमे झाण-सताणो ॥४॥
-व्यानशतक