SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यान-शास्त्र नही-उसी प्रकार जिस प्रकार कि विनयके भेदोमे उपचार विनयके साथ प्रयुक्त हुआ 'उपचार' विशेषण । उपचार-विनयमे पूज्य आचार्यादिको देखकर उठ खड़े होना, उनके पीछे चलना, हाथ जोडना, वन्दना और गुण-कीर्तनादि करना शामिल है, जो कि फलशून्य कोई मिथ्याक्रिया-कलाप नही है। इसी प्रकार उपचारधर्म्यध्यान भी फलशून्य कोई मिथ्याक्रियाकलापरूप नहीं है । वह भी सवर-निर्जरारूप फलको लिये हुए है। यह दूसरी बात है कि उस फलकी मुख्यतया प्राप्ति जिस प्रकार अप्रमत्तोको होती है उस प्रकार प्रमत्तादि पूर्ववर्ती तीन गुणस्थानवालोको नही होती। यहाँ 'अप्रमत्तेषु' पदका आशय केवल अप्रमत्त नामके सातवें • गुणस्थानतियोका ही नही है; किन्तु उसमे अगले तीन गुणस्थानवर्तियोका भी समावेश है, जो कि सब अप्रमत्त (प्रमादरहित) ही होते हैं और उपशमक-क्षपक श्रेणियोके अध.वर्ती अथवा पूर्ववर्ती गुणस्थानोंसे सम्बन्ध रखते हैं, जैसा कि इसी ग्रन्थमे आगे 'प्रबुद्धधीरधाश्रीण्योधर्म्यध्यानस्य सुश्रुत' (५०) और धर्यध्यान पुनः प्राहुः श्रेणीम्यां प्राग्वितिनाम्' (८३) इन दोनो वाक्योसे प्रकट है। सामग्रीके भेदसे ध्याता और ध्यानके भेद 'द्रव्य-क्षेत्रादि-सामग्री ध्यानोत्पत्तौ यतस्त्रिधा ॥ अध्यातारस्त्रिविधास्तस्मात्तेषां ध्यानान्यपि त्रिधा ॥४८ 'ध्यानको उत्पत्तिमें कारणीभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप सामग्री न कि तीन प्रकारकी है-उत्तम, मध्यम और १. ध्यातारस्त्रिविधा ज्ञेयास्तेपा ध्यानान्यपि त्रिधा । लेश्या-विशुद्धि-योगेन फलसिद्धिरुदाहृता ॥ ज्ञाना० २८-२९
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy