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तत्त्वानुशासन रूपसे होता है। जैसाकि ग्रन्थके अगले पद्यमे ही, ध्यानके मुख्य और उपचार ऐसे दो भेद करते हुए, प्रतिपादन किया गया है।
तत्त्वार्थसूत्रके दिगम्बरीय सूत्रपाठमे धर्म्यध्यानके स्वामियोका निर्देशक कोई सूत्र नही है, जब कि अन्य आर्तध्यानादिकके स्वामि-निर्देशक स्पष्ट सूत्र पाये जाते हैं, यह बात चिन्तनीय है। हां, "आज्ञाऽयाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धर्म्यम्' इस ३६वें सूत्रकी सर्वार्थसिद्धिटीकामें 'तदविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयतानां भवति' इस वाक्यके द्वारा चतुर्थसे सप्तमगुणस्थानवर्ती तक जीवोको इस धर्म्यध्यानका स्वामी बतलाया है। इससे एक बात बडी अच्छी फलित होती है और वह यह कि जिन विद्वानोका ऐसा खयाल है कि दिगम्बर-सूत्रपाठ सर्वार्थसिद्धकार-द्वारा संशोधित-स्वीकृत पाठ है वह ठीक नही है। ऐसा होता तो वे (श्रीपूज्यपाद) सहज ही सूत्रमे इस ध्यानके स्वामियोका उल्लेख कर सकते थे, परन्तु ऐसा न करके टीकामे जो उल्लेख किया गया है वह इस बातका स्पष्ट सूचक है कि उन्होंने मूल सूत्रको ज्योका त्यो रखा है।
धमध्यानके दो भेद और उनके स्वामी मुख्योपचार-भेदेन 'धर्म्यध्यानमिह द्विधा । अप्रमत्तेषु तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ॥४७॥ ध्यान-स्वामीके उक्त निर्देशमें धर्म्यध्यान मुख्य और उपचारके भेदसे दो प्रकारका है। अप्रमत्तगुणस्थानवी जीवोमें जो ध्यान होता है, वह 'मुख्य' धर्म्यध्यान है और शेष छठे, पांचवें और चौथे गुणस्थानवर्ती जीवोमे जो ध्यान बनता है, वह सब 'प्रोपचारिक' (गौण)धर्म्यध्यान है ।'
__ व्याख्या-यहां ध्यानके 'उपचार' और 'औपचारिक' - विशेषण गौण तथा अप्रधान अर्थके वाचक है--मिथ्या अर्थके
१. मु मे धर्म ।
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