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ध्यान-शास्त्र
४९ '(सप्तमगुणस्थानवर्ती) अप्रमत्त, ( षष्ठगुणस्थानवर्ती ) प्रमत्त, ( पचमगुणस्थानवर्ती) देशसंयमी और (चतुर्थगुणस्थानवर्ती) सम्यग्दृष्टि ऐसे चार गुणस्थानवर्ती जीव तत्वार्थमे (राजवार्तिकमे) धर्म्यध्यानके स्वामी-अधिकारी स्मरण किये गये अथवा जैनागमके अनुसार माने गये हैं।'
व्याख्या-यहाँ चौथेसे सातवें गुणस्थान तकके जीवोको धर्म्यध्यानका अधिकारी प्रतिपादित किया गया है-चाहे वे किसी भी जाति, कूल, देश, वर्ग अथवा क्षेत्रके क्यो न हो और यह प्रतिपादन जैनसिद्धान्तको दृष्टिसे है, जिसका उल्लेख तत्त्वार्थराजवार्तिक, आर्ष (महापुराण) आदि ग्रन्थोंमे पाया जाता है। यहाँ 'तत्त्वार्थे पदके द्वारा तत्वार्थराजवातिकका ग्रहण है, जिसमें एकमात्र अप्रमत्तगुणस्थानवर्तीको ही धर्म्यध्यानका अधिकारो माननेवालोकी मान्यताका निषेध करते हुए पूर्ववर्ती चार गुणस्थानवालोको भी उसका अधिकारी बतलाया गया है; क्योकि धर्म्यध्यान सम्यग्दर्शनजन्य है' और सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति चौथे गुणस्थानमे हो जाती है, तब अगले पांचवें, छठे गुणस्थानोंमे धर्म्यध्यानकी उत्पत्ति कैसे नहीं बन सकेगी | उक्त मान्यता तत्त्वार्थाधिगमभाष्य-सम्मत श्वेताम्बरीय सूत्रपाठकी है। हो सकता है कि वह मुख्य धर्म्यध्यानकी दृष्टिको लिए हुए हो। क्योकि मुख्य धर्म्यध्यान अप्रमत्तोके ही बनता है, अन्योके वह औपचारिक १. धर्म्यमप्रमत्तस्येति चेन्न पूर्वेषा विनिवृत्तिप्रसगाव""असयतसम्यग्दृष्टि
सयतासंयत-प्रमत्तसयतानामपि धर्म्यध्यानमिष्यते सम्यक्त्वप्रभवत्वात् । यदि धर्म्यमप्रमत्तस्यैवेत्युच्यते तहि तेषा निवृत्ति. प्रसज्येत् । (९-१३) २. आज्ञाऽपाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धय॑मप्रमत्तसयतस्य (तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ३७) । दिगम्बर सूत्रपाठमे इस सूत्रका नम्बर ३६ है और उसमें 'अप्रमत्तसंयतस्य' यह अन्तका पद नही है।