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________________ ४८ तत्त्वानुशासन जघन्य कोटिमे स्थित ध्याता भी इन सब गुणोंसे विशिष्ट होंगेविना इन सब गुणोकी पूर्तिके कोई ध्याता हो ही नही सकेगाऐसा न समझ लेना चाहिए। ध्याताके इस लक्षणमे जिन विशेषणोका प्रयोग हुआ है उनमे अधिकाश विशेषण ऐसे है जो इस लक्षणको प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थानसे पूर्ववर्ती दो गुणस्थानवालोके साथ संगत नही बैठते, जैसे कामभोगोसे विरक्त, सब परिग्रहोका त्यागी, आचार्य से जैनेश्वरी-दीक्षाको प्राप्त और सब परीषहोको सहनेवाला । कुछ विशेषण ऐसे भी हैं जो प्रायः अप्रमत्तसंयत नामक सातवे गुणस्थानसे सम्बन्ध रखते हैं, जैसे प्रमादरहित आशयका होना और आर्त-रौद्रके परित्यागसे चित्तको स्वाभाविक प्रसन्नताका उत्पन्न होना । ऐसी स्थितिमे यह पूरा लक्षण अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिके साथ घटित होता है, जिसको अगले एक पद्य (४७) मे मुख्य धर्म्यध्यानका अधिकारी बतलाया है । और इसलिए प्रस्तुत लक्षण उत्तम ध्याताका है, यह उसके स्वरूप परसे स्पष्ट जाना जाता है। जघन्य ध्याताका कोई लक्षण दिया नही। ध्याताका सामान्य लक्षण 'गुप्तेन्द्रियमना ध्याता' (३८) दिया है, उसीको जघन्य ध्याताके रूपमें ग्रहण किया जा सकता है, क्योकि कम-से-कम ध्यान-कालमे इन्द्रिय तथा मनका निग्रह किये विना कोई ध्याता बनता ही नही । उत्तम और जघन्यके मध्यमे स्थित जो मध्यम ध्याता है वह अनेकानेक भेदरूप है और इसलिए उसका कोई एक लक्षण घटित नही होता। उत्तम ध्याताके गुणोमे कमी होनेसे उसके अनेक भेद स्वतः हो जाते है। धर्म्यध्यानके स्वामी अप्रमत्तःप्रमत्तश्च सददृष्टिदेशसंयतः । धर्म्यध्यानस्य चत्वारस्तत्त्वार्थे स्वामिन. स्मृताः॥४६॥ १. मु मे धर्म।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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