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घ्यान-शास्त्र
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मुक्त - लोकद्वयाऽपेक्षः 'सोढाऽशेष - परीषहः । ध्यान योगे-कृतोद्यमः ॥ ४४ ॥
अनुष्ठित- क्रियायोगो
महासत्त्वः परित्यक्त - दुर्लेश्याऽशुभभावनः । इतीदृग्लक्षणो ध्याता धर्म्य' - ध्यानस्य सम्मतः ॥४५॥
'उच्यमान- विवरण मे धर्म्य ध्यानका ध्याता इस प्रकारके लक्षरगोवाला माना गया है - जिसकी मुक्ति निकट आरही हो ( जो आसन्न भव्य हो ), जो कोई भी कारण पाकर कामसेवा तथा अन्य इन्द्रियोके भोगोसे विरक्त होगया हो, जिसने समस्त परिग्रहका त्याग किया हो, जिसने आचार्यके पास जाकर भले प्रकार जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की हो-जो जैनधर्ममे दीक्षित होकर मुनि बना हो-जो तप और संयमसे सम्पन्न हो, जिसका आशय प्रमादरहित हो, जिसने जीवादि ध्येय-वस्तुको व्यवस्थितिको भलेप्रकार निर्णीत कर लिया हो, आर्त्त और रौद्र-ध्यानोके परित्यागसे जिसने चित्तकी प्रसन्नता प्राप्त की हों, जो ( अपने ध्यान - विषयमे ) इस लोक और परलोक दोनोंकी अपेक्षासे रहितं हो, जिसने सभी परीहोको सहन किया हो, जो क्रियायोंगका अनुष्ठान किये हुए होसिद्धभक्ति यादि क्रियाओके अनुष्ठानमे तत्पर हो--, ध्यान-योगमें जिसने उद्यम किया हो - ध्यान लगानेका कुछ अभ्यास किया हो, जो महासामर्थ्यवान् हो और जिसने अशुभ लेश्याओ तथा बुरी भावनाओका परित्याग किया हो ।'
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व्याख्या - यहाँ अन्तमे प्रयुक्त 'सम्मत' शब्द अपनी खास विशेपता रखता है और वह इस बातका सूचक है कि यह सब लक्षण धर्म्यध्यानके सम्मान्य घ्याताका है, जिसका आशय प्रशस्त अथवा उत्तम ध्याताका लिया जाना चाहिए और इसलिए मध्यम तथा १. मु मे षोढा । २ मु मे धर्म ।