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________________ तत्त्वानुशासन आठवा अग, जो ३७ वे पद्यमे प्रयुक्त हुए 'यस्य' पदका वाच्य है उसका कोई सक्षिप्त वर्णन इससे पहले नही आया । इसलिए उसके भी सक्षिप्त कथनकी बात साथमे कुछ खटकती-सी जान पडती है। परन्तु विचार करने पर ऐसा मालूम होता है कि चूं कि यहाँ सामान्यरूपसे आठ अगोके स्वरूपकी सूचना की गई है और 'यस्य' पद मे सामान्यतः ध्यानके स्वामीको सूचना हो जाती है । अतः दूसरी कोई सक्षिप्त सूचना बनती नहीं। अगले पद्योमे ध्याताका जो विशेष वर्णन है उसमे (पद्य ४६ मे) गुणस्थानक्रमसे ध्यानके स्वामियोका निर्देश करते हुए उस आठवें अगकी ध्यान-स्वामीके रूपमे जो सूचना है वह विशेषसूचना है। अत 'यस्य' पदके द्वारा ही संक्षिप्त सूचना की गई है, ऐसा समझना चाहिये। ध्याता और ध्यान-स्वामी इन दोनोका विषय एक दूसरेके साथ मिला-जुला है । ध्याता ध्यानके कर्ता अथवा अनुष्ठाताको कहते हैं और ध्यान-स्वामी ध्याता होनेके अधिकारीका नाम है, जो गुणस्थानकी दृष्टिको लिए हुए है । इसलिये दोनोमे थोडा अन्तर है और इसी अन्तरकी दृष्टिसे योगके अगोमे ध्यातासे ध्यान-स्वामीका पृथक् ग्रहण किया गया है। ___ ध्याताका विशेष लक्षण तत्राऽऽसन्नीभवन्मुक्तिः किचिदासाद्यकारणम् । विरक्तः काम-भोगेभ्यस्त्यक्त-सर्वपरिग्रहः ।।४१॥ अभ्येत्य सम्यगाचार्य दीक्षां जैनेश्वरी श्रितः । तपः-संयम-सम्पन्न. प्रमादरहिताऽऽशयः ॥४२॥ सम्यग्निर्णीत-जीवादि-ध्येयवस्तु-व्यवस्थितिः । आत-रौद्र-परित्यागाल्लब्ध-चित्त-प्रसत्तिकः ॥४३॥ १ मु मे भवेन्मुक्ति ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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