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ध्यान-शास्त्र
४५ णीय है जहां, जब और जैसे ध्यान निर्विघ्न सिद्ध होता है।'
व्याख्या-यहाँ योगके उत्तरवर्ती तीन अगोके सक्षिप्त स्वरूपके लिए केवल इतना ही निर्देश कर दिया गया है कि जब, जहाँ और जिस अवस्थासे ध्यानकी निर्विघ्न सिद्धि हो, वही काल, वही क्षेत्र और वही अवस्था योगके लिये ग्राह्य है, और इससे यह साफ फलित होता है कि योग-साधनाके लिए सामान्यत किसी देश, काल तथा अवस्थाके विशेषका कोई नियम नही है। इतना हो नियम है कि उनमेसे कोई ध्यानमे बाधक न होना चाहिये। कौन देश, कालादिक ध्यानमे बाधक होता है और कौन नही, यह सब विशेष परिस्थितियोके आधीन है और इनका कुछ वर्णन विशेष कथनके अवसर पर परिकर्मादिके रूपमे किया गया है।
इति संक्षेपतो ग्राह्यमष्टांग योग-साधनम् । विवरीतुमदः किंचिदुच्यमान निशम्यताम् ॥४०॥ "इस प्रकार संक्षेपसे अष्ट अंगरूप योग-साधन ग्रहण किये जानेके योग्य है। इसका विवरण करनेके लिये जो कुछ आगे कहा जा रहा है उसे (हे साधको ! ) सुनो।' ___ व्याख्या-यहाँ योग-साधनको आठ अगरूप बतलाया है,
और 'इति सक्षेपत' शब्दोके द्वारा उन आठ अगोके सक्षिप्त कथनकी समाप्तिको सूचित किया है। परन्तु ३८ वे पद्यमे ध्याता, ध्येय, ध्यान, फल इन चार अगोका सक्षिप्त स्वरूप दिया है और ३६ वें पद्यमे देश-काल तथा अवस्था-विषयक तीन अगोंके स्वरूपकी कुछ सूचना की गई है। इस तरह सात अगोका सक्षिप्त कथन तो समाप्त हुआ कहा जा सकता है;
१ मु मे निशाभ्यताम्