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________________ तत्त्वानुशासन 'जो योगी ध्यान करनेकी इच्छा रखता है उसे ध्याता, ध्येय, ध्यान, फल, जिसके, जहाँ, जब और जैसे यह सब इस धर्म्यध्यानके प्रकरण में जानना चाहिए ।' व्याख्या - यहाँ योगीको योगके जिन आठ अगोको जाननेकी प्रेरणा की गई है, उनमे 'यस्य' शब्द ध्यानके स्वामीका, 'यत्र' शब्द ध्यानके योग्य क्षेत्रका 'यदा' शब्द ध्यानके योग्य कालका और 'यथा' शब्द ध्यानके योग्य अवस्था - मुद्रादिका वाचक है । ध्यानादिका स्वरूप ग्रन्थकारने स्वयं आगे दिया है । ४४ गुप्तेन्द्रिय-मना ध्याता ध्येयं वस्तु यथास्थितम् । एकाग्र चिन्तनं ध्यानं निर्जरा-संवरौ फलम् ॥३८॥ 1 इन्द्रियों तथा मनोयोगका निग्रह करनेवाला - उन्हे अपने अधीन रखनेवाला - 'ध्याता' कहलाता है, यथावास्थित वस्तु 'ध्येय' कही जाती है, एकाग्र चिन्तनका नाम 'ध्यान' है और निर्जरा तथा संवर दोनों (धर्म्यध्यानके) 'फल' हैं ।' व्याख्या - यहाँ योगके ध्यानादिरूप प्रथम चार अगोका सक्षिप्त स्वरूप दिया गया है। इनके विशेषरूपका वर्णन ग्रन्थकारने स्वयं आगे पद्य न० ४१ से किया है । अत उसको यहाँ देनेकी जरूरत नही । २ 'देश कालश्च सोऽन्वेष्यः सा चावस्थाऽनुगम्यताम् यदा यत्र यथा ध्यानमपविघ्नं प्रसिद्धयति ॥ ३६ ॥ ( धर्म्यध्यानके स्वामी - द्वारा ध्यानके लिए ) देश ( क्षेत्र ) और काल (समय) वह अन्वेषणीय हैं और अवस्था वह अनुसर ९. यदा यत्र यथावस्यो योगी ध्यानमवाप्नुयात् । स कालः स च देश स्याद् ध्यानावस्था च सा मता ॥ ( श्रार्ष २१-८३ ) २. मु मे ऽन्वेष्य । ३ ज यया यत्र यदा । ४ सिजु प्रसिध्यते । + C
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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