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ध्यान - शास्त्र
ध्यानके भेद और उनकी उपादेयता
आत्तं रौद्र ं च दुयन वर्जनीयमिद सदा ।
धर्म्यं' शुक्लं च सद्ध्यान 'मुपादेयं मुमुक्षुभि ॥ ३४॥ 'आत्त ध्यान दुध्यान है, रौद्रध्यान भी दुर्घ्यीन है और यह प्रत्येक दुर्ध्यान मुमुक्षुओंके द्वारा सदा त्यागने योग्य है । धर्म्यध्यान सद्ध्यान है, शुक्लध्यान भी सद्ध्यान है और यह प्रत्येक सद्ध्यान मुमुक्षुओके द्वारा सदा ग्रहरण किये जानेके योग्य है ।'
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व्याख्या --- यहाँ आगमवर्णित ध्यानके मूल चार भेदोका नामोल्लेख करते हुए उनमे पहले आर्त और रौद्र दो ध्यानोको दुर्यान बतलाया है, जिन्हे असत्, अप्रशस्त तथा कलुष-ध्यान भी कहते है । शेष धर्म्य और शुक्ल दो ध्यानोको सद्ध्यान बतलाया है, जिन्हे प्रशस्त तथा सातिशय- ध्यान भी कहते है । पहले दोनो दुर्ध्यान पापबन्धके और ससार - परिभ्रमणके कारण होनेसे हेय- कोटिमे स्थित हैं और इसलिए मुमुक्षुओके द्वारा सदा त्याज्य हैं, जबकि धर्म्य और शुक्ल दोनो ध्यान सवर, निर्जरा तथा मोक्षके कारण होनेसे उपादेय- कोटि मे स्थित है और इसलिए मुमुक्षुओ द्वारा सदा ग्राह्य हैं ।
'ऋते भवमाप्त' इस निरुक्तिके अनुसार ऋत नाम दुख, अर्दन (पीडन ) अथवा अर्तिका है और उसमे जो उत्पन्न होता है उसे 'आर्त्तध्यान' कहते हैं प्रकारका होनेसे आर्तध्यानके भी चार
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१. मु मे धर्मं । २. सिजु सुध्यानं ।
विवक्षित दुःख चार
भेद कहे गए हैं
३ असाता - वेदनाजन्य
१ इष्ट-वियोगज,
२ अनिष्ट - सयोगज,
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( रोगज), ४ निदान । इष्ट अथवा मनोज्ञ वस्तुका वियोग होने पर उसके सयोगकी जो वार वार चिन्ता है, वह पहला आर्त