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________________ ४० ध्यान-शास्त्र क्रियाका कर्ता, कर्म और अधिकरण आत्मासे भिन्न कोई दूसरा नही होता। द्विविध मोक्षमार्ग ध्यानलभ्य होनेसे ध्यानाभ्यासकी प्रेरणा 'स च मुक्तिहेतुरिद्धोध्याने यस्मादवाप्यते द्विविधोऽपि । तस्मादभ्यस्यन्तु ध्यानं सुधिय सदाऽप्यपास्याऽऽलस्यम् ॥३३॥ 'यत (चू कि) निश्चय और व्यवहाररूप दोनों प्रकारका निर्दोष मुक्तिहेतु (मोक्षमार्ग) ध्यानकी साधनामें प्राप्त होता है अत हे सुधीजनों । सदा ही पालस्यका त्याग कर ध्यानका अभ्यास करो।' व्याख्या-यहाँ सुधीजनोको निरालस्य होकर सदा ध्यानको प्रेरणा करते हुए उसकी उपादेयता तथा उपयोगिताको जिस हेतु-द्वारा प्रदर्शित किया है वह खास तौरसे ध्यानमे लेने योग्य है और वह यह है कि ध्यान-द्वारा दोनो प्रकारका मोक्षमार्ग सघता है। जब मुमुक्षु ध्यानमे अपनेसे भिन्न दूसरे पदार्थोंका अवलम्बन लेकर उन्हे ही अपने श्रद्धानादिका विषय बनाता है तब वह व्यवहार-मोक्षमार्गी होता है। और जब केवल अपने आत्माका ही अवलम्बन लेकर उसे ही अपने श्रद्धानादिका विषय बनाता है तब वह निश्चय-मोक्षमार्गी होता है। इस तरह ध्यानका करना बहुत ही आवश्यक तथा उपयोगी ठहरता है। १ दुविहं पि मोक्खहेउ झाणे पाउणदि ज मुणी णियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समन्भसह ॥ (द्रव्यसं० ४७) २. मु मे भ्यसंतु।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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