SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ तत्त्वानुशासन ध्यान है, अनिष्ट-अमनोज्ञ पदार्थका संयोग होने पर उसके वियोगकी जो वार-वार चिन्ता है वह दूसरा आर्तध्यान है। रोगजनित वेदनाको दूर करनेके लिए जो स्मृतिका सतत प्रवर्तन है वह तीसरा आर्तध्यान है और भोगोकी आकाक्षासे आतुर व्यक्तिके अनागत भोगोकी प्राप्तिके लिए जो मनः प्रणिधान है वह चौथा आर्तध्यान है । यह ध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसयतोके होता है। रुद्र नाम क्रूर-आशय का, उसका जो कर्म अथवा उसमे जो उत्पन्न उसे रौद्र कहते हैं । वह हिंसा, असत्य, चोरी तथा विषयसरक्षणके निमित्तसे होता है। इन निमित्तोके कारण उसके चार भेद होते हैं-१ हिंसानन्द, २ मृषानन्द, ३ चौर्यानन्द और ४ विषय-सरक्षणानन्द, जिसे परिग्रहानन्द भी कहते हैं । ये चारो रौद्रध्यान अपने हिंसादिक कृत्योंके द्वारा दूसरोको रुलाकर-कष्ट पहुँचाकर आनन्द मनानेके रूपमे महाकरताको लिए हुए होते है । ये अविरत तथा देशविरत तक ही होते है। शुक्लध्यानके ध्याता बजूसंहननोपेताः पूर्व-श्रुत-समन्विताः । दध्युः शुक्लमिहाऽतीता.श्रेण्योरारोहरणक्षमाः ॥३५॥ . १. ऋते भवमात्तं स्याद् ध्यानमाद्यचतुर्विधम् । इष्टानवाप्त्यनिष्टाप्तिनिदानाऽसातहेतुकम् ॥३१॥ विप्रयोगे मनोज्ञस्य तत्संयोगानुतर्षणम् । अमनोज्ञार्थसंयोगे तद्वियोगानुचिन्तनम् ।।३२॥ निदानं भोगकाक्षोत्यं संक्लिष्टस्याऽन्यभोगत' । स्मृत्यन्वाहरणं चैव वेदनार्तस्य तत्क्षाये ॥३३॥ (आर्ष, पर्व २१) २ रुद्र क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम् (सर्वार्थसिद्धि ६-२८)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy