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ध्यान - शास्त्र
व्यवहार-मोक्ष-मार्ग
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'धर्मादि श्रद्धानं सम्यक्त्वं ज्ञानमधिगमस्तेषाम् । चरणं च तपसि चेष्टा व्यवहारान्मुक्तिहेतुरयम् ॥३०॥
'धर्म श्रादिका - धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद् गल इन छह द्रव्योका तथा जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन नौ पदार्थों या तत्त्वोकाजो श्रद्धान वह 'सम्यक्त्व' (सम्यग्दर्शन), उन द्रव्यों तथा तत्त्वोंका जो अधिगम - अधिकृतरूपसे अथवा सविशेषरूपसे जानना - वह 'सम्यग्ज्ञान', और तपमे - इच्छाके निरोधमे - जो चर्या - प्रवृत्ति वह 'सम्यक् चारित्र' है । इस प्रकार यह व्यवहारनयकी दृष्टिसे मुक्तिका हेतु है— व्यवहार - रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग है ।'
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व्याख्या - प्रकरण और ग्रन्थ- सन्दर्भ की दृष्टिसे इस पद्यमें प्रयुक्त हुआ 'सम्यक्त्वं' पद सम्यग्दर्शनका 'ज्ञानं' पद सम्यग्ज्ञान का और 'चरण' पद सम्यक् चारित्रका वाचक है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका स्वरूप इससे पहले प्रस्तुत ग्रन्थ ( २५, २६, २७ ) मे दिया जा चुका है । यहाँ उन्हीका स्वरूप कुछ भिन्नताको लिए हुए जान पडता है । वहाँ जीवादि नव पदार्थों के यथा - जिनभाषितरूपसे श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा गया है और यहाँ मात्र धर्मादिकके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कह दिया है, वहीं उन नव पदार्थोंके प्रमाण-नय- निक्षेपोद्वारा सम्य निश्चयको सम्यज्ञान बतलाया गया है तो यहाँ धर्मादिकके मात्र अधिगमको - सम्यग्ज्ञान कह दिया है, और वहां मन-वचन-काय तथा कृतकारित - अनुमोदनासे पापकी क्रियाओके त्यागको सम्यक्चारित्र
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१. धम्मादी सद्दहरण सम्मत्त णाणमगपुव्वादि ।
चिट्ठा तवम्हि चरिया ववहारो मोक्ख मग्गो त्ति || ( पचा० १६० ) २ तेसिमधिगमो गारण । ( पचा० १०७, समय० १५५ )