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________________ तत्त्वानुशासन निर्दिष्ट किया है तो यहाँ केवल तपकी चेष्टाको ही चारित्र बतला दिया है। इस भेदका क्या कारण है ? यह यहाँ विचारणीय है । जहाँ तक मैंने विचार किया है, पूर्व तीन पद्यो (२५, २६,२७) का कथन सम्यग्दर्शनादिके लक्षण-स्वरूप-निर्देशकी दृष्टिको लिए हुए है और यहाँ पर उस दृष्टिको छोडकर उनके सामान्य-स्वरूपकी मात्र सूचना की गई है । पापक्रियाओका जो त्याग है वह एक प्रकारसे इच्छाके निरोधरूप तप ही है। फिर भी 'जीवादिश्रद्धानं'के स्थान पर 'धर्मादिश्रद्धानं' का जो पद है वह कुछ खटकता जरूर है, परन्तु यह खटक उस वक्त मिट जाती है जब हम श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी पचास्तिकायगत उस गाथाको देखते हैं जो पिछले फुटनोटमे उद्धृत है । वस्तुत दोनोमे कोई अन्तर नही है, अजीवके कथनमे धम, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योका कथन आजाता है। इसके सिवाय, स्वय श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने सम्यक्त्वादिका स्वरूप 'जीवादी सद्दहणं' रूपसे भी दिया है, जैसा कि प्रवचनसारकी निम्न गाथासे प्रकट है - जीवादी सहहण सम्मत तेसिमधिगमो णारण । रायादी परिहरण चरण एसो दु मोक्खपहों ॥१५॥ निश्चय-मोक्ष-मार्ग निश्चयनयेन भणितस्त्रिभिरेभियः समाहितो भिक्षुः । नोपादत्ते किचिन्न च मुचति मोक्षहेतुरसौ ॥३१॥ " 'इन तीनों व्यवहारसम्यग्दर्शनादिसे भले प्रकार युक्त जो भिक्षुसाधु जब न तो कुछ ग्रहण करता है और न कुछ छोड़ता है तब १. 'जीवादी सद्दहण सम्मत्त', वाक्य दसणपाहुडमे भी दिया है । २ णिच्चयणयेण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा ।। ण कुणदि किंचिवि अण्ण ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति(पचा० १६१)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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