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________________ ३५ ध्यान-शास्त्र द्वारा किये-कराये जाने पर उनके अनुमोदनका मनसे त्याग, वचनसे त्याग तथा कायसे त्याग, इस तरह पापक्रियाओका जो नव प्रकारसे त्याग है उसका नाम सम्यक्चारित्र है। यहाँ सम्यक्चारित्रका यह लक्षण पापक्रियाओके त्यागरूप होनेसे निषेधपरक (निवृत्त्यात्मक) है और निषेधका विधिके साथ अविनाभावी सम्वन्ध है। जहाँ त्याग होता है वहां कुछ ग्रहण भी होता है और वह ग्रहण त्याज्यके प्रतिपक्षीका होता है। पापक्रियाओकी प्रतिपक्षी-क्रियायें धर्मक्रियायें हैं, उनका ग्रहण अथवा अनुष्ठान पापक्रियाओंके त्यागके साथ अवश्यभावी है और इसलिये उनके अनुष्ठानकी दृष्टिसे सच्चारित्रका विधि-परक (प्रवृत्त्यात्मक) लक्षण भी यहाँ फलित होता है और वह यह कि-'मनसे, वचनसे तथा कायसे कृत-कारित-अनुमोदनाके द्वारा जो (पापविनाशक) धर्मक्रियाओका अनुष्ठान है, उसका नाम भी सम्यक्चारित्र है। मोक्षहेतुके नयदृष्टिसे भेद और उनकी स्थिति 'मोक्षहेतुः पुनधा निश्चयाद् व्यवहारतः । तत्राऽऽद्य साध्यरूपः स्याद्वितीयस्तस्य साधनम् ॥२८॥ 'पूर्वोक्त मुक्ति-हेतु-मोक्षमार्ग-निश्चयनय और व्यवहारनयके भेदसे पुन दो प्रकार है, जिनमे पहला निश्चय मोक्षमार्गसाध्यरूप है और दूसरा व्यवहार-मोक्षमार्ग उस निश्चयमोक्षमार्गका साधन है।' व्याख्या-यहाँ मोक्षमार्गके दो नयदृष्टियोसे दो भेद करके एकको साध्य और दूसरेको साधन प्रतिपादित किया गया है और इससे १. निश्चय-व्यवहाराभ्या मोक्षमार्गो द्विधा स्थित । तत्राऽऽद्य साध्यरूप. स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ।। -तत्त्वार्थसारे, अमृतचन्द्रः २ मु निश्चयव्यवहारत ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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