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ध्यान-शास्त्र
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सर्वज्ञ-जिनने निर्दिष्ट किया है वे उसी प्रकारसे स्थित हैअन्यथा रूपसे नही-ऐसी जो श्रद्धा, रुचि अथवा प्रतीति है, उसका नाम 'सम्यग्दर्शन' है।'
व्याख्या-यहाँ 'अर्थ' शब्दके द्वारा जिन पदार्थो का ग्रहण विवक्षित है, उन्हे अन्यत्र समयसारादि आगम-ग्रन्थोमे 'तत्त्व' शब्दके द्वारा निर्दिष्ट किया है । तत्त्व, अर्थ और पदार्थ इन तीनोको एक ही अर्थके वाचक समझना चाहिये। इनकी मूलसख्या प्राय नौ रूढ' है। इसीसे उक्त सख्याके अनुसार ६ नाम ऊपर दिये गये है। तत्त्वार्थसूत्रादि कुछ मूल-ग्रन्थोमे तत्त्वोकी सख्या सात दी है । उनमे पुण्य तथा पापको आस्रव-तत्त्वमे सग्रहीत किया है। अत जिनभाषित तत्त्वो या पदार्थोकी श्रद्धा-दृष्टिसे इस संख्या-भेदके कारण सम्यग्दर्शनमे कोई अन्तर नहीं पड़ता। 'सस्यग्दर्शन' पदमे प्रयुक्त हुआ 'दर्शन' शब्द यहां श्रद्धाका वाचक है-चक्षुदर्शनादिरूप दृष्टिका वाचक नही जैसे कि 'तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम्' इस सूत्रमे प्रयुक्त हुआ 'दर्शन' शब्द श्रद्धानका वाचक है।
इन जीवादि पदार्थोंका उनके भेद-प्रभेदो-सहित जैसा कुछ स्वरूप-निर्देश जिनागमोंमे किया गया है, उस सबका वैसा ही अविरोधरूप श्रद्धान यहाँ विवक्षित है, क्योकि 'नाऽन्यथावादिनो जिना' की उक्तिके अनुसार वीतराग सर्वज्ञ-जिन अन्यथावादी नही होते और इसलिये उनके कथन-विरुद्ध जो श्रद्धान है वह अतत्त्व-श्रद्धान होनेसे सम्यग्दर्शनकी कोटिसे निकल जाता है। जो जिन-भाषित होता है, वह युक्ति तथा आगमसे अविरोधरूप १. जीवाऽजीवा भावा पुण्ण पाव च आसव तेसिं ।
सवर-निज्जर-बचो मोक्खो य हवति ते अट्ठा ।। (पचास्ति० १०८) २. जीवाऽजीवाऽस्रव-बन्ध-सवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम् (त० सू०१-४)