________________
३२
तत्वानुशासन
___'सर्वज्ञ-जिनके द्वारा स्वयका अनुभूत एव उपदिष्ट मुक्ति-हेतु (मोक्षमार्ग) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ऐसे त्रितयात्मक हैं - इन तीनोको आत्मसात् किये हुए इन रूप है
और निर्जरा तथा सवर उसकी फलव्यापारपरक क्रियाये हैंवह इन दोनो रूप परिणमता हुआ मोक्षफलको फलता है।'
व्याख्या-यहाँ 'त्रितयात्मक' पद और 'मुक्तिहेतु' पदका एकवचनमे निर्देश खासतौरसे ध्यानमे लेने योग्य है और दोनो पद इस वातको सूचित करते हैं कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र ये अलग-अलग मोक्षके तीन हेतु अथवा मार्ग नहो है, बल्कि तोनो मिलकर मोक्षका एक अद्वितीय मार्ग बनाते है। यही बात मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र) के 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग' इस प्रथम सूत्रमे निर्दिष्ट हुई है । मुक्तिहेतुका 'निर्जरा-सवर-क्रिय.' यह विशेषणपद और भी अधिक ध्यान देने योग्य है और वह इस वातको सूचित करता है कि बन्धनसे छूट कर मुक्तिको प्राप्त करना केवल पूर्वबन्धनोकी नष्टिरूप निर्जरासे ही नहीं बनता, बल्कि नये बन्धनोको रोकनेरूप सवरको भो साथमे अपेक्षा रखता है । सम्यग्दर्शनादिका व्यापार निर्जरा और सवर दोनो रूपमे होता है और तभी वे मोक्षफलको प्राप्त करानेमे समर्थ होते है।
सम्यग्दर्शनका लक्षण जोवादयो नवाप्यर्था ये यथा जिनभाषिताः।
ते तथैवेति या श्रद्धा सा सम्यग्दर्शन स्मृतम् ॥२५॥ 'जीवादिक जो नौ पदार्थ-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप नामके-हैं उन्हें जिस प्रकारसे