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ध्यान-शास्त्र
का दाता बतलाया गया है।
अब यह प्रश्न पैदा होता है कि बन्धके हेतुओका विनाश कंसे किया जाय ?-किस उपाय अथवा कौनसे पुरुषार्थको उसकेलिये काममे लाया जाय ? इसके उत्तरमे आचार्यमहोदय कहते है.
___ वन्ध-हेतु-विनाशार्थ मोक्ष-हेतु-परिग्रह बन्ध हेतु-विनाशस्तु मोक्षहेतु-परिग्रहात् । परस्पर-विरुद्धत्वाच्छीतोरण-स्पर्शवत्तयोः ॥२३॥ 'बन्धके कारणोका विनाश तब बनता है जब कि मोक्षके कारणोंका आश्रय लिया जाता है, क्योकि बन्ध और मोक्ष दोनोके कारण उसीतरह एकदूसरेके विरुद्ध हैं जिसतरह कि शीतस्पर्श उष्णस्पर्शके विरुद्ध है-शीतको दूर करनेके लिये जिस प्रकार उष्णताके कारण और उष्णताको दूर करनेके लिये शीतके कारण मिलाये जाते है, उसी प्रकार बन्धके कारणोको दूर करनेके लिये मोक्षके कारणोका मिलाना आवश्यक है।'
व्याख्या-यहाँ सक्षेपमे उस उपाय, मार्ग अथवा पुरुषार्थको सूचना की गई है जिससे बन्ध-हेतुओका विनाश सधता है, और वह है मोक्ष-हेतुका परिग्रहण-मोक्ष-मार्गका सम्यक् अनुसरण । क्योकि मोक्ष-हेतु बन्ध-हेतुका प्रबल विरोधी है अत. उसको अपनानेसे बन्ध-हेतुका सहज ही विनाश हो जाता है । अब उस मोक्ष-हेतुका क्या रूप है, उसे बतलाया जाता है -
मोक्षहेतुका लक्षण सम्यग्दर्शनादि-त्रयात्मक स्यात्सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रितयात्मकः । मुक्ति-
हेजिनोपज्ञ निर्जरा-सवर-क्रिय.२ ॥२४॥
१ तत्त्वानुशासन ७। २ मुक्रिया , मे किया।