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________________ तत्त्वानुशासन इसीसे आचार्यमहोदयने उनके सह-नाशका आश्वासन दिया है और इस आश्वासनके द्वारा मुमुक्षुको उन प्रमुख शत्रुओके प्रथमत विनाशके लिये प्रोत्साहित किया है। यहाँ प्रयुक्त हुआ 'क्रमश.' शब्द अपना खास महत्व रखता है और इस वातको सूचित करता है कि इन मोह, मिथ्याज्ञान, ममकार और अहकारका विनाश क्रमश होता है। ऐसा नहीं कि दृष्टिविकाररूप मोह तो बना रहे और मिथ्याज्ञानका अभाव होजाय अथवा मोह और मिथ्याज्ञान दोनो बने रहे किन्तु ममकार छूट जाय या ममकार भी बनारहे और अहकार छूट जाय । पूर्वपूर्वके विनाशपर उत्तरोत्तरका विनाश अवलम्बित है। समस्त वन्धहेतुओके विनाशका फल ततस्त्वं बन्ध-हेतूनां समस्तानां विनाशतः । बन्ध-प्रणाशान्मुक्तः सन्त भ्रमिष्यति संसृतौ ॥२२॥ 'तत्पश्चात् राग-द्वेषादिरूप बन्धके शेष कारणकलापके भी नाश हो जाने पर (हे आत्मन् ।) तू सारे ही कारणोके विनाशसे और (फलत) बन्धनके भी विनाशसे मुक्त हुआ (फिर) संसारमे भ्रमण नहीं करेगा।' व्याख्या-यहाँ पर पूर्व पद्यमे दिये हुए आश्वासनको और आगे बढाया गया है और यह कहा गया है कि जब उपर्युक्त प्रकारसे सारे बन्ध-हेतुओका अभाव हो जायगा, तब बन्धका भी अभाव होजायगा, क्योकि कारणके अभावमे कार्यका अस्तित्व नहीं बनता। जब बन्धका पूर्णतः विनाश हो जायगा, तब हे आत्मन् ! तू बन्धनसे छूटकर मुक्त हो जायगा और इस तरह ससार-परिभ्रमणसे अथवा ससारके सारे दु खोसे छूट जायगा; क्योकि बन्धका कार्यही ससार-परिभ्रमण है, जिसे सारे दु खो
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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