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ध्यान-शास्त्र
'(हे आत्मन् !) बन्धके मुख्य कारणो-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और ममकार-अहकाररूप मिथ्याचारित्र-के क्रमश नष्ट होने पर तेरे राग-द्वेषादिरूप शेष जो बन्धका हेतु-कारणकलाप है वह सब भी नाशको प्राप्त हो जायगा।'
व्याख्या-पूर्वकारिकामे जिन मोहादिकको आत्माका शत्रु वतलाया गया है और जिनके विनाशार्थ खासतौरसे पुरुपार्थकी प्रेरणा कीगई है, उन्हे आचार्यमहोदयने यहाँ बन्धके कारणोमे प्रधानकारण प्रतिपादित किया है और साथ ही आत्माको यह आश्वासन दिया है कि तुझे बन्धनबद्ध करनेवाले इन प्रमुख शत्रुओके नष्ट होजानेपर शेष बन्धकारक जो राग-द्वषादिरूप शत्रसमूह है वह भी नाशको प्राप्त होजायगा-उसके विनष्ट होनेमे फिर अधिक विलम्ब तथा पुरुषार्थको अपेक्षा नही रहेगी, क्योकि ममकारसे रागकी और अहंकारसे द्वपकी उत्पत्ति होती है । जव ममकार और अहकार ही नष्ट होगये, तब राग और द्वषकी परम्परा कहाँसे चलेगी? राग द्वपके अभावमे क्रोधादिकषाये तथा हास्यादि नोकषाये स्थिर नही रह सकेगी, क्योकि रागसे लोभ-माया नामक कपायोकी तथा हास्य, रति, कामभोगरूप नोकषायोकी उत्पत्ति होती है और द्वेषसे क्रोध-मान नामक कषायोकी तथा अरति, शोक, भय, जुसूप्सारूप नोकषायोकी उत्पत्ति होती है। कषाय-नोकषायके अभावमें मन-वचनकायको क्रियारूप योगोकी प्रवृत्ति नही बनती । योगोकी प्रवृत्तिके न बननेपर कर्मोका आस्रव नही बनता, जिसे वन्धका निबन्धन कहा गया है । और जब कर्मोंका आस्रव ही नहीं बनेगा, तब बन्धन किसके साथ होगा? किसीकेभी साथ वह नही बनसकेगा। इस तरह यह स्पष्ट है कि बन्धके उक्त मुख्य हेतुओका विनाश होनेपर बन्धके शेष सभी हेतुओका नाश होना अवश्यभावी है।