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________________ २६ तत्त्वानुशासन मिटकर उसे यह सूझ नही पडता कि ये मोहादिक-मिथ्यादर्शनादिक-ससार-परिभ्रमणके हेतुरूप मेरे शत्र है और इनके फन्देसे छूटनेका कोई उद्यम नहीं करता। मुख्य वन्धहेतुओके विनाशार्थ प्रेरणा तस्मादेतस्य मोहस्य मिथ्याज्ञानस्य च द्विषः । ममाऽहंकारयोश्चात्मन् ! विनाशाय कुख्यमम् ॥२०॥ 'प्रत हे प्रात्मन् ! (यदि तू इस भव-भ्रमणसे छूटना चाहता है तो) इस मिथ्यादर्शनरूप मोहके, भ्रमादिरूप मिथ्याज्ञानके और ममकार तथा अहंकारके, जोकि तेरे शत्रु हैं, विनाशके लिये उद्यम कर।' ___ व्याख्या-यहाँ मोह, मिथ्याज्ञान, ममकार और महकार इन चारोको आत्माका शत्रु बतलाया गया है, क्योकि ये आत्माका अहित करते है-उसके गुणोका घात करके आत्मविकासको रोकते है। इसीसे इनके विनाशके लिए यहाँ उद्यम करनेकी प्रेरणा की गई है, और इससे यह स्पष्ट है कि इन शत्रुओका नाश विना उद्यम, प्रयत्न अथवा पुरुषार्थ के अपने आप नही होगा । यथेष्ट पुरुषार्थके अभावमे इनकी परम्परा अनादिकालसे चली आती है। अत इनका मूलोच्छेद करनेके लिये प्रवल पुरुषार्थकी अत्यन्त आवश्यकता है। उस पुरुषार्थके बन आनेपर इनका 'विनाश अवश्यभावी है। मुख्य वन्ध-हेतुओके विनाशका फल बन्ध-हेतुषु मुख्येषु नश्यत्सु क्रमशस्तव । शेषोऽपि राग' द्वषादिर्बन्ध-हेतविनंक्ष्यति ॥२१॥ १ सि जु शेपो राग । २. मु विनश्यति ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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