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________________ ध्यान-शास्त्र शेष अशुभरूप हैं, जिन्हे पापप्रकृतियाँ कहते हैं । इन सब कर्मोका, कर्मोंसे होनेवाली चार प्रकारकी गतियोका, गतियोमे प्राप्त होनेवाले औदारिक-वैक्रियकादि पच प्रकारके शरीरोका और शरीरोके साथ सम्बद्ध स्पर्शन-रसनादि पाँच प्रकारकी इन्द्रियोका स्वरूपादि-विपयक विस्तृत वर्णन तत्त्वार्थसूत्र, उसके टीकाग्रन्थ, षट्खण्डागम, कर्मप्रकृति, पचसग्रह और गोम्मटसारादि सिद्धान्त ग्रन्थोसे जानना चाहिये। 'तदर्थानिन्द्रियगृह्णन्मुह्यति द्वष्टि रज्यते। ततो बद्धो भ्रमत्येव मोह-व्यूह-गतः पुमान् ॥१६॥ 'उन इन्द्रियोके विषयोको इन्द्रियो-द्वारा ग्रहण करता हुआ जीव राग करता है, द्वेष करता है तथा मोहको प्राप्त होता है और इन राग-द्वेष-मोहरूप प्रवृत्तियो-द्वारा नये बन्धनोसे बँधता है । इस तरह मोहकी सेनासे घिरा तथा उसके चक्करमे फंसा हुआ यह जीव भ्रमण करता ही रहता है।' व्याख्या-यह उस कथनका उपसहार-पद्य है जिसकी सूचना तेरहवें पद्यमे 'मोह-व्यूहको सुदुर्भद बतलाते हुए' की गई थी। ममकार और अहकारसे जिन राग-द्वेषकी उत्पति हुई थी वे अपनेसे अनेक कर्मबन्धनोको उत्पन्न करते हुए फिर यहाँ आगये हैं और यहाँसे फिर नये कर्मचक्रको सृष्टि शुरू हो गई है। इस तरह कर्मके चक्करसे यह जीव निकलने नही पाताउसी की भूलभुलैयाँमे फंसा हुआ बराबर उस वक्त तक ससारपरिभ्रमण करता रहता है जब तक कि उसका दृष्टिविकार १ तेहिं दु विसयग्गहण तत्तो रागो व दोसो वा ॥१२६।। जायदि जीवस्सेद भावो ससार-चक्कवालम्मि ॥१३०॥ (पचास्ति०) २ मु मे वधो।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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