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________________ २६ तत्त्वानुशासन हैं और इसलिए 'प्राणिवधादये' पदमे प्रयुक्त हुआ बहुवचनान्त 'आदि' शब्द जहाँ झूठ, चोरी, मैथुन-कुशील और परिग्रह जैसे पापकार्योंका वाचक है वहाँ अहिंसा-दया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-जैसे पुण्यकार्योंका भी वाचक तेभ्यः। कर्माणि बध्यन्ते तत सुगति-दुर्गती। तत्र कायाः प्रजायन्ते सहजानीन्द्रियाणि च ॥१८॥ 'उन प्ररिणवधादिक कार्योसे कर्म बंधते हैं जिनके शुभ तथा अशुभ ऐसे दो भेद है । कर्मोके बन्धनसे सुगति तथा दुर्गतिकी प्राप्ति होती है -अच्छे-शुभ कर्मोके बन्धनसे (देव तथा मनुष्य भवकी प्राप्तिरूप, सुगति और बुरे-अशुभ कर्मोके बन्धनसे (नरक तथा तिर्यचयोनिरूप ) दुर्गति मिलती है। कर्मों के वश उस सुगति या दुर्गतिमे जहाँ भी जीवको जाना होता हैं वहाँ शरीर उत्पन्न होते है और शरीरोंके साथ सहज ही इन्द्रियाँ भी उत्पन्न होतो हैं-चाहे उनकी संख्या एक शरीरमे कमसे कम एक ही क्यो न हो। व्याख्या-यहाँ जिन कर्मोके बन्धनेका उल्लेख है, उनकी ज्ञानावरणादिरूप मूलप्रकृतियाँ आठ, मतिज्ञानावरणादिरूप उत्तरप्रकृतियाँ एकसौ अडतालोस और फिर मतिज्ञानावरणादिके भेद-प्रभेद होकर उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ असख्य हैं । इन सब कर्मप्रकृतियोमे कुछ शुभरूप है, जिन्हे पुण्यप्रकृतियाँ कहते हैं, और १ जो खलु ससारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदि-सुगदी ॥१२८॥ गदिमधिगदस्स देही देहादो इदियारिण जायते ॥१२६॥ -पचास्तिकाय
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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