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ध्यान-शास्त्र
२५ का जन्म होता है और इन दोनोसे (ममकार-अहकारसे) राग तथा द्वेष उत्पन्न होता है।'
व्याख्या-यहाँ ममकार और अहकारको राग-द्वेषका जो जनक बतलाया गया है उसका यह आशय नही कि दोनो मिलकर राग-द्वष उत्पन्न करते है या एक रागको तथा दूसरा द्वेषको उत्पन्न करता है, बल्कि यह आशय है कि दोनो अलग अलग राग-द्वषके उत्पादक है-ममकारसे जिस प्रकार रागद्वषकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार अहकारसे भी होती है ।
ताभ्यां पुन कषायाः स्यु!कषायाश्च तन्मयाः। तेभ्यो योगाः प्रवर्तन्ते ततः प्राणिवधादयः ॥१७॥ 'फिर उन (राग-द्वेष) दोनो से कषायें-क्रोध, मान, माया, लोभ- और नोकषायें-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तथा काम-वासनायें-उत्पन्न होती हैं, जोकि राग द्वेषरूप है। उन कषायो तथा नोकषायोसे योग प्रवृत्त होते हैं-मन, वचन तथा कायकी क्रियायें बनती हैं-और उन योगोके प्रवर्तनसे प्रारिण-वधादिरूप हिंसादिक कार्य होते हैं।'
व्याख्या-माया, लोभ, हास्य, रति और स्त्री-पुरुषादि-वेदरूप काम-वासनाएँ ये पाँच (दो कषायें तथा तीन नोकषाये) रागरूप हैं। क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा (ग्लानि) ये छह (दो कषाये तथा चार नोकषायें) द्वषरूप है । मनवचन-कायकी क्रियारूप योगोकी प्रवृत्ति शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकारकी होती है । शुभयोगप्रवृत्तिके द्वारा अच्छे-पुण्यकार्य और अशुभयोगप्रवृत्तिके द्वारा बुरे-पापकार्य होते १ राग प्रेमरतिर्माया लोम हास्य च पचधा।। मिथ्यात्वभेदयुक् सोऽपि मोहो द्वेष क्रुधादि पट् ॥ (अध्यात्मरहस्य २७)