SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वानुशासन ___ 'कर्मोके द्वारा निर्मित जो पर्याये हैं और निश्चयनयसे प्रात्मासे भिन्न हैं उनमे आत्माका जो मिथ्या प्रारोप है-उन्हे आत्मा समझनेरूप अज्ञानभाव है-उसका नाम 'अहकार' है, जैसे मै राजा हूँ।' व्याख्या-यहाँ परमार्थनयका अर्थ निश्चयनयसे है, जिसे द्रव्यार्थिक नय भी कहा गया है, उसकी दृप्टिसे जितनी भी कर्मकृत पर्याये हैं वे सब आत्मासे भिन्न हैं-आत्मरूप नहीं हैंउन्हे आत्मरूप समझ लेना ही अहकार है, जैसे मैं राजा, मैं रक, मैं गोरा, मैं काला, मै पुरुप, मैं स्त्री, मैं उच्च, मै नीच, मै सुरूप, मैं कुरूप, मैं पडित, मैं मूर्ख, मैं रोगी, मैं नीरोगी, मैं सुखी, मैं दुखी, मैं मनुष्य, मैं पशु, मैं निर्बल, मैं सबल, मैं बालक, मैं युवा, मैं वृद्ध इत्यादि। ये सब निश्चयनयसे आत्माके रूप नही, इन्हें दृष्टि-विकारके वश आत्मरूप मान लेना अहकार है । यह कर्मकृत-पर्यायको आत्मा मान लेने रूप अहकारकी एक व्यापक परिभाषा है। इसमें किसी पर्याय-विशेषको लेकर गर्व अथवा मदरूप जो अहभाव है वह सब शामिल है। निश्चय-सापेक्ष्य व्यवहारनयकी दृष्टिसे अपनेको राजादिक कहा जा सकता है, परन्तु व्यवहार-निरपेक्ष निश्चयनयकी दृष्टिसे आत्माको राजादिक मानना अहकार है। इसी तरह देहको आत्मा मान लेना भी अहकार है। __ ममकार और अहकारमे मोह-व्यूहका सृष्टि-क्रम मिथ्याज्ञानान्वितामोहान्ममाहकार-सभव । इसकाम्यां तु जीवस्य रागो द्वषस्तु. जायते ॥१६॥ 'मिथ्याज्ञान-युक्त मोहसे जीवके ममकार और अहकार१ ज द्वेषश्च -
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy