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________________ ध्यान - शास्त्र अधीन हैं, अपने आत्मद्रव्यसे भिन्न हैं और सष्ट भिन्न हुई दिखाई पडती हैं । शरीर आदिके भिन्न होते उन पर कोई वश नही चलता, जबकि वस्तु होने काटतीम पर उन्हे आत्माधीन होना और सदा लाग चाहिए था । यह सव कथन अगले पद्यमे प्रयुक्त हुए परी अपेक्षा रखता हुआ निश्चयनयकी दृष्टि है। दृष्टि से मेरा शरीरादि कहने में जरूरत है हार निश्चयनय के ज्ञानसे वहिर्भूत है रखता हुआ कोरा व्यवहार है बया को ही नि समझ लेनेके रूपमे है वह भा विपर्यासको लिए हुए है । प्राय ऐसा निश्चयनयकी दृष्टिको स्पष्ट व्यावहारिक ममतारूपी घोर स्थिति अस्तव्यस्त हो रही अपने हित-साधनसे दूर गति आचार्यने अपने निम्न भाग माता मे मम गेहिनीनाः तातो मे मम सम्पन्न | इत्थ घोरममवस्थिति, शर्माधान विवान् वनी ॥ ही है और है। इस सती जिसके उनकी है श्रीमत जैसा कि है लक्षण -भावना २५ ये कर्म कृता मात्रा परमाय-तयेन चात्मनो भिन्नः । तत्राऽऽमाभिनिर्ब्रन्नोऽहंकारोऽहं यया नृपतिः ॥१४॥
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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