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________________ ध्यान-शास्त्र और यही कारण है कि उसके भ्रम तथा सशयको साथ लेकर तीन भेद किये गये हैं, अन्यथा वह एक भेद अज्ञानरूप हो रहता। परस्पर विरुद्ध नाना कोटियोका स्पर्श करनेवाले ज्ञानको सशय, विपरीत एक कोटिका निश्चय करनेवाले ज्ञानको भ्रम (विपर्यय) और 'क्या है' इस आलोचनमात्र ज्ञानको अज्ञान (अनध्यवसाय) कहते हैं। यथार्थज्ञानमे ये तीनो दोष नही होते। मिथ्याचारित्रका लक्षण "वृत्तमोहोदयाज्जन्तो कषाय-वश-वर्तिन. । योग-प्रवृत्तिरशुभा' मिथ्याचारित्रमूचिरे ॥११॥ '(दर्शनमोहनीयकर्मके उदयपूर्वक अथवा सस्कारवश) चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे कषाय-वशवर्ती हुए जीवकी जो अशुभयोगप्रवृत्ति होती है-काय, वचन तथा मनकी क्रिया किसी अच्छे भले-शुभकार्यमे प्रवृत्त न होकर पापबन्धके हेतुभूत बुरे एव निन्द्य कार्योमे प्रवृत्त होती है—उसको 'मिथ्याचारित्र' कहा गया है।' व्याख्या-मोहके मुख्य दो भेद है---एक दर्शनमोह और दूसरा चारित्रमोह । दर्शनमोहके उदयसे जिस प्रकार मिथ्यादर्शन- की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार चारित्रमोहके उदयसे मिथ्याचारित्रकी सृष्टि बनती है। उस मिथ्याचारित्रका स्वरूप यहाँ मन-वचन-कायमेसे किसी योग अथवा योगोकी अशुभ-प्रवृत्तिको बतलाया है और उसका स्वामी उस जीवको निर्दिष्ट किया है जो चारित्रमोहके उदयवश उस समय किसी भी कषाय अथवा नोकषायके वशवर्ती होता है । काय, वचन तथा मनको क्रियारूप १ मु वृत्तिमोहो । २. सि जु प्रवृत्तिमशुभा । ३ सि जु माचरे ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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