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________________ तत्त्वानुमानन रचि-प्रतीति के होने पर भी मिथ्यादर्शन नहीं होता। जैसे कि श्रेणिक राजाको क्षायिक मम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हानेने उसके दर्शनमोहनीय कर्मका उदय नहीं बनता, फिर भी अपने पुत्र कुणिक (अजातग) के भावको उमन अन्यचारपमे समझकर अन्यथा प्रवृत्ति कर डाली। इतने मानसे वह मिथ्यादृष्टि अथवा मिथ्यादर्शनको प्राप्त नहीं कहा जाता, क्योकि दर्शनमोहनीय कर्मको दायसे उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शनका कभी अभाव नही होता। मिप्यामानका लक्षण और भर ज्ञानावृत्युदयादर्थवन्यथाऽधिगमो भ्रमः । अज्ञान संशयश्चेति मिथ्याज्ञानमिदं त्रिधा ॥१०॥ '(दर्शनमोहनीयकमके उदयपूर्वक अथवा नन्कारवा) ज्ञानावरणीयकमके उदयसे (बचावन्धित) पदार्थोमे जो उनके यथावस्थित स्वर पसे भिन्न अन्यथा ज्ञान होता है, उसका नाम 'मिथ्याज्ञान' है और यह मिथ्याज्ञान सशय, भ्रम (विपर्यय) तथा श्रज्ञान (अनध्यवमाय, ऐसे तीन प्रकारका होता है।' व्यारया-ज्ञानावरणीय कर्मके उदयने अज्ञानभाव होता है। और यहीं अन्यथाज्ञानकी बात कही गई है, वह इस बातको सूचित करती है कि ज्ञानावरणीय कर्मके उदयके साथ दर्शनमोहनीय कर्मका उदय भी लगा हुआ है अथवा उसके सन्कारोको साथमें लिये हुए है। मिथ्याज्ञान दर्शनमोहस्प चक्रवर्ती राजाका आश्रित मन्त्री है, यह बात आगे १२वे पद्यमे स्पष्ट कीगई है और इसलिए उसे मोहके सस्कारोसे विहीन ग्रहण नहीं किया जासकता १. मु ज्ञानमिह ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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