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________________ तत्त्वानुशासन जो योग' यहाँ विवक्षित है उसके दो भेद है-एक शुभयोग और दूसरा अशुभयोग । शुभपरिणामोके निमित्तसे होनेवाला योग शुभ और अशुभपरिणामोके निमित्तसे होनेवाला योग अशुभ कहलाता है । अशुभयोगकी प्रवृत्ति अशुभ होती है और उसी अशुभ प्रवृत्तिको यहाँ मिथ्याचारित्र कहा गया है। हिंसा, चोरी और मैथुनादिमे प्रवृत्त हुआ शरीर अशुभ-काययोग है । असत्य, कटुक तथा असभ्य भाषणादिके रूपमे प्रवृत्त हुआ वचन अशुभ-वाग्योग है। हिंसादिककी चिन्ता तथा ईर्ष्या-असूयादिके रूपमे प्रवृत्त हुआ मन अशुभ-मनोयोग है। इस प्रकार योगोको यह अशुभप्रवृत्ति, जो कृत-कारित-अनुमोदनके रूपमें होती है, पापास्रवकी हेतुभूत है और इसीसे मिथ्याचारित्र कहलाती है। दूसरे शब्दोमे मनसे, दचनसे, कायसे, करने-कराने तथा अनुमोदनाके द्वारा जी हिंसादिक पापक्रियाओका आचरण अथवा अनुष्ठान है वह मिथ्याचारित्र है, जो सम्यग्चारित्रके उस लक्षणके विपरीत है जिसका निर्देश आगे २७वे पद्यमे किया गया है। यह सर्व कथन व्यवहारनयकी दृष्टिसे है । निश्चयनयकी दृष्टिसे तो सम्यग्दर्शन-ज्ञानसे रहित और चारित्रमोहसे अभिभूत योगोकी शुभप्रवृत्ति भी शुभकर्मबन्धके हेतु मिथ्याचारित्रमे परिगणित है, क्योकि सम्यक्चारित्र कर्मादाननिमित्त-क्रियाके त्यागरूप होता है। १. काय-वाड्-मन -कर्म योग । (त० सू० ६-१) २ शुभपरिणाम-निवृत्तो योग शुभः, अशुभपरिणाम-निवृत्तश्चा___ऽशुभ । (सर्वार्थ० ६-३) ३ वध-चिन्तनेया॑ऽसूयापरोऽशुभो मनोयोग (सर्वार्थ० ६-२) ४ संसार-कारण-निवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवत कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमः सम्यक्चारित्रम् । (सर्वार्थ० १-१)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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