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ध्यान-शास्त्र
कि 'अनेकविध ' पदका प्रयोग ससारके पच-परिवर्तन-रूप मूलभेदोके अतिरिक्त उसके अवान्तर भेदोकी दृष्टिको भी साथमे लिये हुए है और इसलिये 'पादि' शब्दको भी और अधिक व्यापक अर्थमे ग्रहण करना चाहिये।
वन्धके हेतु मिथ्यादर्शन आदि स्युमिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणि समासतः । बन्धस्य हेतवोऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तरः ॥८॥
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनो सक्षेपरूपसे बन्धके कारण हैं । बन्धके कारणरूपमे अन्य जो कुछ कथन (कही उपलब्ध होता) है वह सब इन तीनाका ही विस्ताररूप है। __ व्याख्या-यहां बन्धके हेतुरूपमे जिन मिथ्यादर्शनादिकका निर्देश किया गया है वे वे ही हैं जिनको स्वामी समन्तभद्रने अपने समीचीन-धर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) के 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि' नामक तृतीय पद्यमे प्रयुक्त 'यदीयप्रत्यनोकानि भवन्ति भवपद्धति' इस वाक्यके द्वारा बन्धके कायरूप ससारका हेतु (मार्ग) बतलाया है । बन्धका हेतु कहो चाहे ससारका हेतु कहो, दोनोका आशय एक ही है। प्रस्तुत पद्यमे 'अन्यस्तु त्रयाणामेवविस्तर.' यह वाक्य खास तौरसे ध्यानमे लेने योग्य है। इसके द्वारा यह सूचित किया गया है कि समयसार, तत्त्वार्थसूत्रादि ग्रन्थोमे बन्धहेतुविषयक जो कथन कुछ भिन्न तथा विस्तृतरूपमे पाया जाता है वह सब इन्ही तीनो हेतुओके अन्तर्गत-इनमे समाविष्ट अथवा इन्ही मूल हेतुओके विस्तारको लिए हुए है। जैसे समयसारमे एक स्थान पर मिथ्यात्व, अविरमण (अविरत) कषाय और योग