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तत्त्वानुशासन
व्याख्या-यहाँ ससारको बन्धका कार्य बताया है। ससारके दो अथ हैं-एक विश्व अथवा जगत्, दूसरा ससरण, परिभ्रमण अथवा परिवर्तन । पहले अर्थके अनुसार यह सब दृश्य जगत् बन्धका काय अवश्य है, क्योकि वह जीव-पुद्गल और पुद्गलपुद्गलक परस्पर बन्ध-द्वारा निष्पन्न हुआ है। यदि किसोका किसोके साथ बन्ध न हो-जीव अपने शुद्ध सिद्धस्वरूपमे स्थित हो और पुद्गल अपने परमाणुरूप शुद्ध स्वरूपमे अवस्थित हो तो यह दृश्यमान जगत् कुछ बनता ही नही और न प्रतीतिका कोई विषय ही रहता है । दूसरे अर्थके अनुसार जीवोका जो यह जन्मजन्मान्तर अथवा भव-भवान्तरकी प्राप्तिरूप परिभ्रमण और नानावस्थाओका धारण है, वह सब बन्धका ही परिणाम है। बन्धसे परतन्त्रता आनी है, स्वभावमे स्थिति न होकर विभावपरिणमन होता रहता है । यही ससार है और ससार शब्दका यह दूसरा अर्थ ही यहाँ परिग्रहीत है, क्योकि बन्धके प्रस्तुत स्वरूपमे जीव और कर्मपुद्गलोके सश्लेपका हो उल्लेख है, पुद्गल-पुद्गलके सश्लेषका नही । इसी अर्थमे ससार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके भेदसे पच-परिवर्तनरूप है। इन पच परिवर्तनोकी भी यहाँ मात्र सूचना की गई है। इनका स्वरूप भी कुछ विस्तारको लिये हुए होनेसे प्रस्तुत ग्रन्थ-सन्दर्भके साथ उसकी अधिक उपयोगिता न समझकर उसे छोड़ दिया गया है।
यहाँ एक प्रश्न पैदा होता है कि जब ससार द्रव्यादि-पचपरावर्तनरूप है और इसलिए मूलमे प्रयुक्त हुआ 'आदि' शब्द काल, भव तथा भावका वाचक है, तब उस ससारको 'अनेकविधः' न कहकर 'पचविध ' कहना चाहिए था, ऐसा कहनेसे छदोभग भी कुछ नही बनता था ? इसके उत्तरमे इतना ही निवेदन है