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________________ ध्यान - शास्त्र १३ करके नौ तत्त्वोमे बँटे हुए है। ये सब तत्त्व ही अध्यात्म- योगियोके लिए मोक्षमार्ग मे अथवा अपना विकास सिद्ध करने के लिए प्रयोजनभूत है । बन्धके इस कथनमे बन्धके मूल चार भेदोकी मात्र सूचना की गई है, उनके नाम भी नही दिये गये - उन्हे केवल ' प्रसिद्ध' कहकर छोड़ दिया गया है । और यह ठीक ही है; क्योकि बन्धके भेद-प्रभेदोके कथनोपकथनोसे जैनागम भरे हुए है । जिन्हे उनकी विशेष जानकारी प्राप्त करनी हो वे उस विषयके आगम ग्रन्थोको देख सकते हैं। इस ग्रन्थका मुख्य विषय ध्यान होनेसे ऐसे बहुविस्तारवाले दूसरे विपयोकी मात्र सूचना करदी गई है, जिससे ग्रन्थसन्दर्भ सहजसुखबोध, श्रृखलाबद्ध एव सुव्यवस्थित बना रहे और किसीको मूल - विपयके परिज्ञानमें अनावश्यक विलम्ब होनेसे विषयान्तर होने जैसो आकुलता अथवा अरुचि उत्पन्न न होवे । बन्धतत्त्वको विस्तारसे जाननेके लिये महाबन्ध, पट्खण्डागम, पचसग्रह, गोम्मटसार, कम्मपयडी, तत्त्वार्थ सूत्र आदि ग्रन्थोको उनकी टीकाओ - सहित देखना चाहिये । वन्धका कार्य और उसके भेद बन्धस्य कार्यः' ससार: सर्व दु ख प्रदोऽङ्गिनाम् । द्रव्य क्षेत्रादि-भेदेन स चाऽनेकविधः स्मृतः ॥७॥ 'बन्धतत्त्वका कार्य ससार है- भव-भ्रमण है- जोकि देहधारी ससारी जीवोको सब दु खोका देनेवाला है और वह द्रव्यक्षेत्रादिके भेद से- द्रव्य-क्षेत्र - काल-भव-भाव-परिवर्तनादिके रूपमे - अनेक प्रकारका है, ऐसा सर्वज्ञके प्रवचनका जो स्मृतिशास्त्र जैनागम है उससे जाना जाता है ।' १. ज कार्य
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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