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________________ ध्यान-शास्त्र व्याख्या-यहाँ जैनागम-प्रतिपादित सात अथवा नव तत्त्वोमेसे आस्रव और बन्ध इन दो तत्त्वोको हेयतत्त्व बतलाया है, क्योकि ये दोनो तत्त्व हेयरूप जो समस्त दु ख है उसके वीजभूत हैइन्हीसे सारे दु खोकी उत्पत्ति होती है। काय, वचन तथा मनकी क्रियारूप जो योग-प्रवृत्ति है उसका नाम आस्रव है। वह योग-प्रवृत्ति यदि शुभ होती है तो उससे पुण्यकर्मका और अशुभ होती है तो उससे पाप कर्मका आस्रव होता है । सात तत्त्वोकी गणना अथवा प्ररूपणामे पुण्य और पाप ये दो तत्त्व आस्रवतत्त्वमे गर्भित होते हैं और नव तत्त्वोकी गणना अथवा प्ररूपणामे उन्हे अलगसे कहा जाता है। बन्ध आस्रव-पूर्वक होता हैविना आस्रवके बन्ध बनता ही नहीं। इसीसे आस्रवको बन्धके निबन्धन-कारणरूपमे यहाँ निर्दिष्ट किया गया है। अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि पुण्यकर्मका आस्रव-वन्ध तो सुखका कारण है और इसलिये ये दोनो तत्त्व सुखके भी वीज हैं, तब इन्हे अशेषदु खके ही बीज क्यो कहा गया ? इसके उत्तरमे इतना ही निवेदन है कि पुण्य भी एक प्रकारका बन्धन है, जिससे आत्मामे परतन्त्रता आती है-ससार-परिभ्रमण करना पडता है-और परतन्त्रता तथा ससार-परिभ्रमणमे वास्तविक सुख कही भी नही, आत्मा अपने स्वाभाविक सुखसे वचित रह जाता है और उसका ठीक उपभोग नही कर पाता। इसीलिये आध्यात्मिक तथा निश्चयनयकी दृष्टिसे जो सुख पुण्यकर्मके फलस्वरूप इन्द्रियो-द्वारा उपलब्ध होता अथवा ग्रहणमे आता है उसे १ काय-वाङ्-मन -कर्म योग । स आस्रव । (त० सू० ६-१, २) २. शुभ पुण्यस्याऽशुभः पापस्य । (त०सू० ६-३)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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