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तत्त्वानुशासन की प्राप्ति सुलभ होती है तब दूसरे अत्युदयरूप सांसारिक सुखोकी तो बात ही क्या है, जो कि दु.खसे मिश्रित और अस्थिर होने आदिके कारण शुद्ध मुसस्प नहीं हैं। और इसलिये सासारिक सुखके अभिलापियोको यह न समझ लेना चाहिये कि हेयोपादेय-तत्त्वकी जानकारी उनके लिये अनुपयोगी है। वह किसीके लिये भी अनुपयोगी न होकर सभीके लिये उपयोगी तथा कल्याणकारी है, क्योकि वह सम्यग्नानलप होनेसे उस रत्नमय धर्मका एक अङ्ग है जिसके फल नि श्रेयस और अभ्युदय दोनो प्रकारके सुख हैं।
तापो-दु खोकी कोई सरया न होने पर भी यहाँ उनके लिये जो 'त्रय' शब्द-द्वारा तीनकी सस्याका निर्देश किया गया है वह दु खोके मुख्य तीन प्रकारोका वाचक है, जिनमे सारे दु खोका समावेश हो जाता है।
हेयतत्त्व और तत्कारण बन्धो निबन्धनं चाऽस्य हेयमित्युपदर्शितम् । हेयस्याऽशेष-दु खस्य' यस्माद्बीजमिदं द्वयम् ॥४॥ '(उस सर्वज्ञने) बन्ध और उसका कारण-आस्रव, इस तत्वयुग्मको हेयतत्त्व बतलाया है। क्योकि हेयरूप-तजने योग्य-जो सम्पूर्ण दुख है उसका बीज यह तत्त्व-युग्म (दो तत्त्वोका जोडा) है-सब प्रकारके दु खोकी उत्पत्तिका मूलकारण है।' १. नि श्रेयसमभ्युदय निस्तीर दुस्तर सुखाम्बुनिधिम् ।
नि पिवति पीतधर्मा सर्वैर्दु खैरनालीढ ।। (रत्नकरण्ड १३०) २ मु मे हेय स्यादुःख-सुखयोः।