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________________ ध्यान-शास्त्र होता है, अभव्योके द्वारा नही। इसलिये भव्य-जीवोको लक्ष्यमे लेकर वह दिया गया, ऐसा कहनेमे आता है, और उसके अनुसार आचरणसे चूंकि दुःखोंसे छुटकारा मिलता और शिवसुखतककी प्राप्ति होती है, इसीसे इन दोनोके उद्देश्यसे उसका दिया जाना कहा जाता है। अन्यथा, सर्वज्ञके मोहनीय कर्मका अभाव हो जानेसे परम वीतरागभावकी प्रादुर्भूति होनेके कारण जब इच्छाका अभाव हो जाता है तब यह विकल्प ही नही रहता है कि मैं अमुक प्रकारके जीवोको लक्ष्यमे लेकर और अमुक उद्देश्य से उपदेश दूं-उनके लिये सब जीव और सब ।हित, समान होता है और इसलिये अमुक जीवोको लक्ष्यमे लेकर और अमुक उद्देश्यसे उपदेश दिया गया, यह फलितार्थकी दृष्टिसे एक प्रकारको कथन-शैली है। इससे सर्वज्ञके ऊपर किसी प्रकारकी इच्छा, राग या पक्षपातका कोई आरोप नही आता। उनका परम-हितोपदेशक-रूपमे परिणमन विना इच्छाके ही सब कुछवस्तुस्थितिके अनुरूप होता है। सुखका 'शिव' विशेषण यहाँ सर्वोत्कृष्ट सुखकी दृष्टिको । लिये हुए है। जिसे नि श्रेयस, निर्वाण तथा शुद्धसुख भी कहते हैं हैं । जब हेय और उपादेय तत्त्वोकी जानकारीसे सर्वोत्कृष्ट सुख- .: १ अनात्मार्थ विना राग शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पि-कर-स्पर्शान्मुरज किमपेक्षते ॥ (रत्नकरण्ड ८ मोक्षमार्गमशिपन्नरामरान्नापि शासनफलेषणातुर ।। काय-वाक्य-मनसा प्रवृत्तयो नाऽभवस्तव मुनेश्चिकीर्पया। नाऽसमीक्ष्य भवत प्रवृत्तयो धीर तावकमचिन्त्यमीहितम् । (स्वयम्भूस्तोत्र ७३-७४) २. जन्मजरामयमरण शोक? खै यश्च परिमुक्तम् । निर्वाण शुद्धसुख नि श्रेयसमिष्यते नित्यम् ।। (रत्नकरण्ड १३१)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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