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________________ तत्त्वानुशासन मूर्तिक बना देनेकी अथवा एक मूलद्रव्यको दूसरे मूलद्रव्यमें परिणत कर देनेकी शक्तियां होनी चाहिये। यदि ये सब शक्तियां उसमें नही और इसी तरह लोकाकागसे बाहर गमन करनेको तथा छूटे हए कर्मोको फिरसे अपने साथ लगाकर पहले जैसी क्रियाये करनेकी भी शक्ति नही तो फिर सर्वशक्तिमान् कैसे ? यदि अनेकानेक शक्तियोके न होने पर भी उसे सर्वशक्तिमान कहा जाता है तो समझना चाहिये कि 'सर्व' शब्द उसमे विवक्षितमर्यादित अर्थको लिये हुए है-पूर्णत व्यापक अर्थमे प्रयुक्त नही है। यही दशा सर्वज्ञमे 'सर्व' गन्दकी है और इसलिये सर्वज्ञ अनन्त विषयोका ज्ञाता होते हुए भी सर्वविपयोका ज्ञाता नहीं बनता। यह बात विशेप ऊहापोहके साथ विचारणीय हो जाती है, जिसे यहाँ विस्तार-भय से छोडा जाता है । सर्वज्ञ-द्वारा द्विधा तत्त्व-प्ररूपण और तदृष्टि ताप-त्रयोपतप्तेभ्यो भव्येभ्य शिवशर्मणे । तत्त्वं हेयमुपादेयमिति द्वेधाऽभ्यधादसौ ॥३॥ 'उस वास्तव सर्वज्ञने तीन प्रकारके तापोंसे-जन्म, जरा (रोग) और मरणके दु खोसे अथवा शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कष्टोसे-पीडित भव्यजीवोंके लिये शिवसुखकी प्राप्तिके अर्थ तत्त्वको हेय (त्याज्य) और उपादेय (ग्राह्य) ऐसे दो भेदरूप वर्णित किया है।' व्याख्या-यहाँ सर्वज्ञके तात्त्विक कथनकी दृष्टिको स्पष्ट करते हुए यह बतलाया गया है कि उस सर्वज्ञने तत्त्व-विषयक यह उपदेश ससारके भव्य-जीवोको लक्ष्यमें लेकर उन्हे तापत्रयके दु खोंसे छुडाकर शिवसुखकी प्राप्ति करानेके उद्देश्यसे दिया है । सर्वज्ञका उपदेश भव्यजीवोके द्वारा ही यथार्थ रूपमें ग्राह्य
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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