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ध्यान-शास्त्र
सुख और अनन्तवीर्य नामके चार महान् गुणोको विकसित और साक्षात् किया है।' ___व्याख्या--यहाँ सर्वज्ञका 'वास्तव' विशेषण खासतौरसे ध्यान देने योग्य है और वह इस बातको सूचित करता है कि ससारमे कितने ही विद्वान् अपनेको सर्वज्ञ कहने-कहलानेवाले हुए हैं तथा हैं, परन्तु वे सब वस्तुत (असलमे) सर्वज्ञ नही होते, अधिकाश दम्भी, बनावटी या सर्वज्ञसे दिखाई देनेगले सर्वज्ञाभास होते है, कोई ही उनमे सर्वज्ञ होता है, जिसे वास्तव-सर्वज्ञ कहना चाहिये। सबको, कहे जानेके अनुसार, सर्वज्ञ मान लेना और उनके कथनोको सर्वज्ञकथित समझ लेना उचित नही, क्योकि उनके कथनोमे परस्पर विरोध पाया जाता है और सर्वज्ञोके तात्विक कथनोमे विरोध नही हुआ करता और न हो सकता है । तब यह प्रश्न पैदा होता है कि वास्तवसर्वज्ञ किसे समझना चाहिये, जिसके कथनको प्रमाण माना जाय ? उसीका स्पष्टीकरण पद्यके उत्तरार्धमे किया गया है और यह बतलाया गया है कि घातियाकर्मोके क्षयसे जिसके आत्मामें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप गुणचतुष्टय स्पष्टतया विकसित हो गया है उसे 'वास्तवसर्वज्ञ' समझना चाहिये। ___ सर्वज्ञके उक्त लक्षण अथवा स्वरूप-निर्देशसे एक खास बात यहाँ और फलित होती है और वह यह कि जैनधर्मकी मूलमान्यताके अनुसार सर्वज्ञ वस्तुत अनन्तज्ञ अथवा अनन्तज्ञानो होता है-दूसरोकी रूढ मान्यताके अनुसार नि शेष विषयोका ज्ञाता नही होता, उसी प्रकार जिस प्रकार कि वह अनन्तवीर्यसे सम्पन्न होनेके कारण अनन्तशक्तिमान् तो है, किन्तु सर्वशक्तिमान् नही । सर्वशक्तिमान् मानने पर उसमें जडको चेतन, चेतनको जड,भव्यको अभव्य, अभव्यको भव्य, मूर्तिकको अमूर्तिक और अमूर्तिकको