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________________ तत्त्वानुशासन है-एक परगुरु और दूसरे अपरगुरु। इन गुरुवोंके केवल दो ही विशेषण दिये हैं-'सिद्धस्वार्थान्' और 'अशेषार्थस्वरूपस्योपदेशकान् ।' इससे एक विशेपण परमगुरु सिद्धोका और दूसरा अपरगुरु अर्हन्तो आदिका जान पडता है। यदि परमगुरुवोमे सिद्ध और अर्हन्त इन दोनो प्रकारके गुरुवोका ग्रहण किया जाय तो फिर अपरगुरुवोकी भिन्नताका द्योतक कोई विशेषण नही रहत , दूसरे सिद्धोके सिद्धावस्थामे दूसरा विशेषण नही वनता-भूतप्रज्ञापन नयकी अपेक्षासे भी वह सारे सिद्धोमे घटित नही होता, क्योकि कितने ही सिद्ध (मूक केवली आदि) ऐसे भी हुए है जिन्होने कोई उपदेश नहीं दिया। अत. परम-गुरुवोमे सिद्धोका ही ग्रहण यहाँ विवक्षित प्रतीत होता है। यहाँ प्रथम विशेपणमे प्रयुक्त 'स्वार्थ' शब्द उस लौकिक स्वार्थका वाचक नही जो इन्द्रिय-विपयोके भोगादिरूपमे प्रसिद्धिको प्राप्त है, बल्कि स्वामी समन्तभद्रके शब्दोमे उस आत्मीय स्वार्थ (स्वप्रयोजन) का वाचक है जो आत्यन्तिक स्वास्थ्यरूप हैअविनाशी स्वात्मोपलब्धिके रूपमे स्थित है। __वास्तव-सर्वज्ञका अस्तित्व और लक्षण अस्ति वास्तव-सर्वज्ञः सर्व-गीर्वाण-वन्दित । घातिकम'-क्षयोद्भुत-स्पष्टानन्त-चतुष्टयः ॥२॥ 'सर्वदेवोसे वन्दित वास्तव सर्वज्ञ-सब पदार्थोंका यथार्थ ज्ञाता-कोई है और वह वह है जिसके घातिया कर्मों के क्षयसे प्रादुर्भूत हुआ अनन्तचतुष्टय स्पष्ट होगया है-जिसने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामके चार घातिया कर्मोका , मूलत विनाश कर अपने आत्मामे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त १ घातिकर्मक्षयादाविर्भूताऽनन्तचतुष्टय । (आप २१-१२३)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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