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सम्पादकीय यह 'तत्त्वानुशासन' ग्रन्थ जवसे माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्यमालाके 'तत्त्वानुशासनादिसंग्रह' नामक १३ वें अन्यमे सर्वप्रथम (विक्रमान्द १९७५ मे) मूलरूपसे प्रकाशित हुआ है तभीसे वरावर मेरे अध्ययनका विषय रहा है और मैंने इसके संशोधन तथा सम्पादन-कार्यको अनेक प्रतियोका प्रयत्नपूर्वक आयोजन करके सम्पन्न किया है, जैसा कि प्रस्ताबनाके द्वितीय अधिकार ('अन्यको प्रतियोका परिचय')से प्रकट है। और उसके द्वारा मुद्रित मूलपाठकी अशुद्धियोका ही नही बल्कि ग्रन्यकर्तृत्वके विषयमे जो बहुत बडी भ्रान्ति चल रही थी, उसका भी सुधार हुमा है। अन्यमे सर्वत्र मूलपाठको अपने शुद्धरूपमे रक्खा गया है, अशुद्धरूप तथा भिन्न पाठोको पाद-टिप्पणियो मे, उन-उन प्रतियोके सकेतचिह्नपूर्वक, दे दिया गया है, जिनमे वे पाये जाते हैं । इससे विज्ञपाठकोको उन प्रतियोके मूलरूपको भी समझनेमे सहायता मिलेगी और वह गलती भी पकड़ी जा सकेगी जो कही मूलपाठके ग्रहण मे हुई हो।
इस ग्रन्थका अनुवादकार्य, जिसे करनेकी बहुत दिनोसे इच्छा चल रही थी, श्रावण शुक्ला पचमी गुरुवार ता० २८ जुलाई १९६० को हाथमें लिया गया और वह कोई एक महीनेमे ही ३१ अगस्त १९६० को पूरा हो गया। व्याख्याका कार्य प्रथमपद्यसे ५ अक्तूबर १९६० से प्रारम्भ हुमा । वह कभी चला, कभी-कभी परिस्थितियोके वश अर्से तक बन्द रहा और उसका कोई एक क्रम भी नही रहा-जिन पद्योकी व्याख्याका जव अवसर मिला तभी उसे लिख लिया गया । और इस तरह वह प्राय दिसम्बर १९६१ मे समाप्त हो पाई है। मूलानुगामी अनुवादको ब्लैक टाइपमे रखा गया है और उसके यथावश्यक स्पष्टीकरणको तदनन्तर डशो(- -) के भीतर अथवा डैश (-) पूर्वक दूसरे भिन्न एवं सफेद टाइपमे दिया गया है । इससे पाठकोको मूलग्रन्थके सन्दर्म, शब्द-अर्थविन्यास तथा आत्माको समझनेमे अच्छी मदद मिलेगी।
अब मैं, अपने वक्तव्यको समाप्त करता हुआ, उन सब प्रन्यो तथा अन्यकारो, एव लेखों और लेखकोका हृदयसे आभार मानता हूँ जिनके