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प्रस्तावना
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तक दिया हुआ है, अतः ये पांच पद्य भी पांचवें अध्यायके अन्तमे दिये जाने चाहिये थे, उन्हे छठे अध्यायके प्रारम्भमे देना मसगत जान पडता है । छठे अध्यायका प्रारम्भ १८८वे पद्यसे होना चाहिये था । इस प्रकार मेरी दृष्टिमे अध्यायो और पद्योका यह विभाजन भी अनेक त्रुटियोको लिये हुए है।
इसके सिवाय पद्योके ऊपर जो शीर्षक अथवा परिचय-वाक्य दिये हुए हैं वे भी कुछ त्रुटियोको लिये हुए हैं। कही कही तो कोई शीर्षक अर्थकी जगह अनर्थका परिचायक बन गया है, जैसे कि पद्य न० ११८ पर दिया हुआ 'भावध्येय' शीर्पक, जब कि उस पद्यमे भाव-ध्येयका कोई लक्षण घटित नहीं होता-केवल प्रात्माके ध्येयतम होनेका कारण वतलाया है। भावध्येयका स्वरूप तो पद्य न ११६मे दिया हुआ है, जिसे गलतीसे द्रव्यध्येयकी प्ररूपणा करनेवाले पद्योमे ही शामिल कर लिया गया है।
इस प्रकार ग्रन्यके प्रथम हिन्दी तथा गुजराती दोनो अनुवादोकी यह वस्तुस्थिति है। ये दोनो ही अनुवाद भाष्यको लिखते समय मेरे सामने नहीं रहे हैं-मुझे इनकी उपलब्धि वादको हुई है।
१०. उपसहार प्रन्थके द्वितीय नाम, ग्रन्थकी प्रतियो, ग्रन्थ के कर्तृत्व, ग्रन्य-ग्रन्यकारके समय, ग्रन्थकारके गुरुओ और स्वय ग्रन्थकारके विशेष परिचयके सम्बन्धमे मुझे उपलब्ध जैन-साहित्यपरसे जो कुछ अनुसघान एवे तुलनात्मक अध्ययनके द्वारा प्राप्त हो सका है उस सबको मैंने ऊहापोहके साथ इस प्रस्तावनामे निवद्ध एव सकलित कर दिया है । साथ ही ग्रन्थका आवश्यक सक्षिप्त परिचय भी दे दिया है और पूर्ववर्ती अनुवादो की स्थितिको भी स्पष्ट कर दिया है। इससे पाठकोको प्रस्तुत अन्यकी इतिहासादि-विषयक विशेष जानकारी प्राप्त हो सकेगी और वे