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प्रस्तावना
८७
२५७वें पद्यमे 'श्रीरामसेनविदुषा' के स्थान पर 'श्रीनागसेनविदुषा' पाठ मिलनेके कारण अनुवादमे अन्यकर्ता 'रामसेन' को न लिखकर 'नागसेन' को लिख दिया गया, जो कि ग्रन्थकारके दीक्षागुरुथे, और दीक्षागुरु विजयदेवको बना दिया गया, जो कि चौथे शास्त्रगुरु थे । साथ ही दीक्षागुरुके दो विशेषणोमेसे एकको विजयदेवके तथा दूसरेको ग्रन्थकारके साथ जोड दिया गया और २५६वें पद्यमे प्रयुक्त 'यस्य' पदका २५७वें पद्यमे प्रयुक्त 'तेन' पदके साथ जो गाढ सम्बन्ध है उसका कोई ध्यान नहीं रखा गया।
१०३वें पद्यमे अ-इ-उ-ए-मो सज्ञक जिन अक्षरोके ध्यानका मतिज्ञानादिकी सिद्धिके लिये विधान है उन्हे 'मतिज्ञानादिनामानि' इस विशेषणपदके द्वारा मतिज्ञानादि पांच ज्ञानोके नाम उसी प्रकार सूचित किया है जिस प्रकार पूर्व पद्य (१०२) मे अ-सि-आ-उ-सा अक्षरोको पचपरमेष्ठिवाचक नाम सूचित किया है। परन्तु अनुवादमे उक्त विशेपएपदको विशेषणपद न समझकर मतिज्ञानादिके नामोको अलगसे ध्यान करनेकी प्रेरणा को गई है। इसीसे उक्त मत्राक्षरोके ध्यानकी प्रेरणाके अनन्तर लिख दिया है-"तथा मत्यादि ज्ञानोंकी सिद्धिमाटे मत्यादि ज्ञानोना नामोनु ध्यान करें।"
१७६मे पद्यमे प्रयुक्त 'समाधिप्रत्यया' पद का अनुवाद समाधिके प्रत्ययोंका-~-अतिशय-चमत्कारोकान करके "समाधि अने समाधिविषयक अनुभवो" ऐसा किया गया है, जो अर्थ के ठीक प्रतिभासको लिए हुए मालूम नहीं होता और ८७ पद्यमे प्रयुक्त हुए 'ध्यानप्रत्ययानपि पश्यति' वाक्यके साथ भी सगत नही बैठता, जिसका गुजराती अनुवाद अनुवादकने " ध्यानसम्बन्धी प्रत्ययोंने (विश्वासमा वृद्धि करनारा सुस्वप्नादि चिह्नोने) पण जुझे छ" ऐसा दिया है । ५० माशाधरजीने इष्टोपदेशके ४०वें पद्यकी टीकामे "ध्यानादि लोकचमत्कारिण प्रत्यया. स्य."ऐसा लिखकर प्रमाणमें 'तथा चोक्तं' वाक्यके साथ तत्त्वानुशासनके इस ८७वें पद्यको उधृत किया है, जिससे 'ध्यानप्रत्ययान्' पदका स्पष्ट आशय