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________________ पत्यानुसार भिन्न पाठकी भी सूचना की गई है। वह भिन्नपाठ स्वय गुजराती अनुवादकारके द्वारा सुझाया गया है या हिन्दी अनुवादकार धन्यकुमारजीने उसकी सूचना की है, यह ग्रन्यपरसे ठीक मालूम नही होसका, क्योकि कही-कही तो उस सूचितपाठके अनुसार गुजराती अनुवाद किया गया है और कही-कही उसे छोडकर दूसरे पाठके अनुसार ही अर्थ दिया गया है । उदाहरणके तौरपर पद्य १३६ मे 'प्रशमः' स्थानीय 'परम ' की जगह 'परमा, और पद्य १८४ मे 'मसि' की जगह 'नमसि' पाठ सुधारकर तदनुसार उनका अर्थ किया गया है, 'परमा' को 'शान्ति का विशेषण बनादिया गया है, परन्तु पद्य न ० ५६ मे 'ह्यज्ञान' के स्थान पर 'हि ज्ञान' इस शुद्ध पाठ की और पद्य न० २०१ मे 'सकलीकृत्तविग्रहः' के स्थान पर 'सफलीकृतविग्रह' इस अशुद्धपाठकी सूचना करते हुए भी अनुवादको तदनुरूप प्रस्तुत नही किया गया । इस गुजराती अनुवादके साथ दिये हुए मूलपाठमें यद्यपि कितनी ही । अशुद्धिया अभी स्थिर रही हुई हैं और उनके कारण मनुवाद भी कहीकही अशुद्ध बन पडा है फिर भी ग्रन्थके मूलमे 'तैजसीमाप्या' की जगह 'तैजसीमाओं' जैसी अशुद्धिके लिये कोई स्थान नहीं है और न अनुवादमे ही उस प्रकारकी अशुद्धियां पाई जाती हैं जिस प्रकारकी अशुद्धियां हिन्दीके सर्वप्रथम अनुवादमे दृष्टिगोचर होती हैं और जिनके कुछ नमूने पद्याङ्कके साथ ऊपर दिए हैं। गुजराती अनुवादमे मूलपाठकी अशुद्धियोंके कारण तथा कही-कही अर्थका ठीक प्रतिभास न होनेके कारण जिस प्रकारकी अशुद्धियोंको अवसर मिला उसके कुछ नमूनोका परिचय नीचे कराया जाता है - १३४वें पद्यमे 'ध्यातुःपिण्डे' के स्थान पर 'धातुपिण्डे' और 'फेचन' के स्थान पर केवल' जैसा अशुद्धपाठ उपलब्द्ध होनेके कारण यह अर्थ किया गया है कि 'इस प्रकार जव सप्तधातुके पिडमे-देहमे ध्येय वस्तु का ध्यान किया जाता है तब उस ध्येय को (ध्यानको) पिंडस्य कहा जाता है, इसीसे केवल (कैवल्य, केवलज्ञान) प्राप्त होता है।'
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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