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: अन्थपरिचयं । विक्रम, विद्या, विदग्धता, वित्त, वितरण (दान), विवेक वगेरे 'वि'कारो=विशिष्ट गुणो वस्तुपाळमां होवा छतां तेनामां 'विकार' (दुष्टभाव) न हतो'. वस्तुपाळ नाम 'व' थी शरु थाय छे ते आदि शब्दनो सुमेळ साधी कर्ता ते ज शब्दमां जुदा जुदा गुणोनुं दिग्दर्शन करावे छे. आवी ज.वल्के आने मळती एक उक्ति वस्तुपाळना कवि सोमेश्वरे 'अर्बुदप्रशस्ति'मां रची छे, जेमा कवि कहे छ के 'वंश, विनय, विद्या, विक्रम अने सुकृतकार्योमा वस्तुपाळ समान कोई पण पुरुष क्याय मारी दृष्टिये आवतो नथी". आ प्रमाणे ग्रंथरचयिता धर्मग्रन्थने अनुकूळ वस्तुपाळनुं वंशवर्णन ढूंकमां पण अलंकारसंयोजन साथे नोंधी तेनी मुख्य मुख्य हकीकतोने आलेखे छे.
६५. संघपति अने तेना धर्मों ___धर्माचरणंना मुख्य अंगोमा तीर्थयात्रा ए आवश्यक अंग मनाय छे. दरेक धर्ममां तीर्थयात्रानुं महत्त्व दर्शावेलं छे. हिंदुधर्मनां घणां खरां पुराणोमां तीर्थमाहात्म्यनां भारोभार वर्णनो जोवामां आवे छे. आ सिवाय मुस्लीम, पारसी, क्रिश्चियन वगेरे वीनहिन्दु धर्मोमां पण तीर्थयात्रानां विवेचनो लखाया छे. जैन धर्मशास्त्रकारोए पण तीर्थयात्रानुं अपूर्व महत्त्व पोताना धर्मग्रन्थोमां नोभ्यु छे एटलं ज नहि पण धर्मनां सर्वोत्कृष्ट साधनोमान ते एक होवार्नु भारपूर्वक सूचव्यु छे. धर्मद्रष्टा विजयसेनसूरिए वस्तुपाळने धर्मोपदेश आपतां तीर्थयात्रा करवानो अप्रतिम आदेश आप्यो हतो एम आगळ जणावी गया छीए. केवळ मोजशोख अने विविध शहेरोनी शोभा निहाळवामां ज तीर्थयात्रानुं कर्तव्य पूर्ण थाय छे एवो भ्रामक व्यवहार आजना समयमां जोवामां आवे छे पण साची रीते ते मान्यता वराबर नथी. जैन अने हिन्दुधर्मोमां यात्राविधिना खतंत्र प्रकरणो लखायां छे, जेमां यात्रिके पाळवाना नियमो, व्रतो, दानो अने आचारधर्मोनुं खास शिक्षण आपवामां आव्युं छे. पण जैन धर्मशास्त्र तो तेथी पण आगळ वधी तीर्थयात्रा करवा जतां पोतानी साथे हजारो मनुष्योने लई मोटो संघ काढी ससंघ यात्रा करवानुं अद्वितीय
माहात्म्य रजु करे छे. आवी उदात्त भावनानुं दर्शन जैन धर्मना जनकल्याणकारी उन्नत विचारोने । यशकलगी अपावे छे. कारण तेमा संघपति पोताना खर्चे हजारो मानवोने तीर्थयात्रानो अमूल्य ल्हावो : लेबरावी अक्षय पुण्यनी ल्हाण आपे छे. आ उपरांत आवी ससमूह संघयात्राना विधायके पाळवाना
नियमो, व्रतो, दानो अने आचारधर्मोंने असिधाराव्रतनी माफक चुस्तपणे पाळवानो आदेश जैन शास्त्रो : आपे छे. अने ते प्रमाणे व्रताचरण करनारने ज संघपति बिरुद आपवानुं धर्मशास्त्रो कहे छे. तेमां जणा? वेला संघपतिना धर्मो एक साचा आत्मसंन्यास ग्रहण करनार योगीने अनुरूप छे. एमां लोककल्याणनी । उदात्त भावनाओ ठेर ठेर जोवामां आवे छे.
. विजयसेनसूरिये तीर्थयात्राविधि अने संघपतिनां कर्तव्योने विस्तृत रीते आ ग्रन्थमा आलेखतां कडं ! छे के-संघपतिपणुं अत्यंत दुर्लभ छे. जे मनुष्य संघपति वनी तीर्थाभिवंदन करे छे तेने धन्य छे. 'पूर्वना पुण्ययोगे आत्मउद्धारक संघपतिपणुं प्राप्त थाय छे. संघपतिए सौंथी प्रथम गुरुनी आज्ञा लई । पूर्ण उत्साह साथे संघप्रस्थान- मुहूर्त नक्की करवं. पोतानी साथे संघयात्रामां आववा माटे साधर्मिकोने
बहुमानपुरःसर आमंत्रणपत्रिकाओ मोकलवी. तेमने वाहन वगेरेनी व्यवस्था करी आपवी. जलोपकरण, . छत्र, दीपधारण करनारा (मशालचीयो), धान्य, वैद्य, दवाखानु, चंदन, अगर, कर्पूर, केसर, वस्त्र
१ विभुताविक्रमविद्याविदग्धतावित्तवितरणविवेकः । यः सप्तभिर्वि-कारैः कलितोऽपि वभार न विकारम् ॥सर्ग १,२३. २ अन्वयेन विनयेन विद्यया विक्रमेण सुकृतक्रमेण च । कापि कोऽपि न पुमानुपैति मे वस्तुपालसदृशो दृशोः पथि।
-सोमेश्वरकृत अर्बुदप्रशस्ति।