________________
१५१
प्राणी अमृतसे संतुष्ट हुए जीवोंके समान आनन्दमग्न हो रहे हैं।" धर्मगुरु भी इस जीवके विपयमें इसी प्रकार कहते और समझाते हैं। यथाः
जब यह जीव सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके आविर्भाव होनेपर भी कर्मोकी परतंत्रताके कारण थोडीसी भी विरतिको प्राप्त नहीं होता है अर्थात् किंचित् भी त्याग नहीं कर सकता है, तब इसे इस प्रकार विषयोंमें गहरी मूर्छाके कारण लवलीन हुआ देखकर धर्माचार्य विचार करते हैं कि, आत्माके साथ इसकी कैसी शत्रुता है ? रत्नद्वीपमें पहुंचे हुए अतिशय अभागी पुरुपके समान यह अनमोल रत्नोंके सहश व्रत नियमादि आचरणोंका तिरस्कार करके उन्हें कुछ भी न समझकर काचके टुकड़ोंके समान विषयोंमें क्यों अपने चित्तको उलझाता है ? उस समय गुरु महारान इस प्रमादमें तत्पर हुए जीवपर प्रणयकोप ( स्नेहयुक्त क्रोध ) करते हुए कहते हैं;"हे ज्ञानदर्शनको दोष लगानेवाले ! तेरी यह कैसी अनात्मज्ञता है जो हम वारंवार चिल्लाते हैं-समझाते हैं, परन्तु तू उसपर ध्यान नहीं देता है। हमने बहुतसे अकल्याणके भाजनरूप अभागी प्राणी देखे हैं, परन्तु तू उन सबका शिरोमणि है। क्योंकि तू भगवानके वचनोंको जानता है, जीवादि नव पदार्थोंपर तेरी श्रद्धा है, हम सरीखे उत्साहित करनेवाले तेरे पास हैं, तू यह जानता है कि, इस प्रकारकी सब सामग्री मिलना अतिशय कठिन है, संसारकी दुरन्तताकी तू भावना भाया करता है, कर्मोंकी दारुणताको अच्छी तरहसे जानता है, और रागादि कैसे भयंकर हैं यह समझता है तो भी तू समस्त अनर्थों की प्रवृत्ति करनेवाले, थोड़े दिन रहनेवाले, और तुपोंकी (धान्यके छिलकोंकी) मुट्ठीके समान सारहीन विपयोंमें निरन्तर