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________________ १५२ लवलीन रहता है। तुझे अनोंके गड्ढे पड़ते हुए देखकर हम जो समन्त क्लेशोंकी नाश करनेवाली · भगवती समस्तपापविरतिता ( महावतोंका ) उपदेश करते हैं, मो उसकी ओर तु भूल करके भी नहीं देखता है। और तेरा इसपर भी ध्यान नहीं है कि, हम तेरा किस लिये इतना अधिक आदर करते हैं। सुन. इसका कारण यह है कि तू सन्यग्दर्शन सन्यज्ञानयुक्त होनेके कारण सर्वज्ञशासनके भीतर आ गया है और पहिले ही पहिल भगवानका शासन देखकर भी तुझे आनन्द हुआ था। इससे जब हनने देखा कि. परमात्माने तुझपर दृष्टि डाली है, तब मनझा कि, परमालाका तुझपर अनुग्रह है और इस लिये तुझपर हमारा आदरभाव हुआ । क्योंकि भगवान्के सेवकोंको भगवान्के प्यारेका पक्षपात करना योग्य ही है। और जो अबतक सर्वज्ञशासन मन्दिरके भीतर नहीं आये हैं. अथवा किसी तरह आये हैं परन्तु उसके दर्शनसे प्रसन्न नहीं हुए हैं, उन अनन्त जीवोंने परमात्माकी दृष्टिसे वाद्य समझकर हम देखते हुए भी उदासीनता धारण कर लेते हैं. क्योंकि वे आदर करनेके योग्य नहीं हैं। इस विषयम (पात्रापात्रकी परीक्षा करनेकी उपर कही हुई युक्तिमें) हमारा अभीतक विश्वास था और सन्मार्गन आने योग्य कोन २ जीव हैं, इसका हम इसी उपायसे निश्चय करते थे। इसके सिवाय निन २ जीवोंकी इस उपायसे परीक्षा की गई है, वे कभी विरुद्ध सिद्ध नहीं हुए हैं। परन्तु तेरे इस विपरीत आचरणसे हमारा अच्छी तरहसे निश्चित किया हुआ भी उपाय व्यभिचारी (झूठ) हुआ जाता है । इससे हे दुमते ! ऐसा मत कर । हन जो कहते हैं. उसे अब भी मान ले। इस दुःशीलताको छोड़ दे, दुर्गतिरूपी नगरोके जाने के मार्ग समान अविरतिको (हिंसादि पापोंको) त्याग दे और
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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