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आगे कथामें कहा है कि, " उस भिखारीको अतिशय राग भावके कारण अपने बुरे भोजनके ठीकरेपर वारवार दृष्टि डालते हुए देखकर और उससे उसका अभिप्राय समझकर भोजनालयके स्वामी धर्मबोधकरने कुछेक कठोरतासे वा निष्टुरतासे कहा कि, "अरे दुर्बुद्धि, भिखारी ! तू यह कैसा उलटा आचरण कर रहा है? यह कन्या तुझे प्रयत्नपूर्वक खीरका भोजन दे रही है, सो क्या तू नहीं जानता है ? मैं समझता हूं कि और बहुतसे पापी भिखारी होंगे, परन्तु तेरे समान अभागियोंका शिरोमाणि एक भी नहीं होगा, जो कि अपने तुच्छ भोजनमें मनको लगाये हुए इस अमृतके समान मीठे परमान्नको मैं दिलवाता हूं, तो भी नहीं लेता है। जब तूने इस राजमन्दिरमें प्रवेश किया था, तब तुझे इसे देखकर कुछेक आनन्द हुआ था,
और उस समय परमेश्वरकी दृष्टि भी तुझपर पड़ गई थी । इसीलिये हम तेरा आदर करते हैं, नहीं तो जो जीव इस राजमन्दिरसे बाहिर रहते हैं, और इस राजभवनको देखकर प्रसन्न नहीं होते हैं तथा जिनपर राजराजेश्वर सुस्थितकी दृष्टि नहीं पड़ती है, उनकी हम बात भी नहीं पूंछते हैं। हम तो अपने सेवकधर्मकी पालना करनेके लिये जो कोई महाराजका प्यारा होता है, उसीपर प्यार करते हैं। हमको यह विश्वास है कि, सुस्थितमहाराज अमूढलक्ष्य हैं-अर्थात् उनकी जांचमें कभी अन्तर नहीं पड़ता है। वे अपात्र पुरुषकी ओर कभी दृष्टि नहीं डालते हैं । परन्तु हमारे इस विश्वासको तू इस समय अपने विपरीत आचरणसे झूठा सिद्ध कर रहा है अर्थात् तू अपात्र जान पड़ता है । सो हे भाई ! अव तू विपरीतताको छोड़ दे, और अपने कुभोजनको फेंककर इस परमान्नको (खीरको ) ग्रहण कर कि जिसके प्रभावसे इस राजमहलमें रहनेवाले समस्त